गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

भारत का द्वन्दात्मक भौतिकवादी विश्लेषण 2017 की माओवादी क्रांति के परिपे्रक्ष्य में:



           जिस दिन कार्ल माक्र्स ने दार्शनिकों को चुनौती देते हुए यह घोषण की कि अब तक दार्शनिकों ने विश्व की सिर्फ व्याख्या की है; जब कि जरूरत इसे बदलने की है। उसी दिन से महसूस की जाने लगी कि दुनिया को एक ऐसे दर्शन की जरूरत है; जो बदलाव व इनकलाब लाये। दार्शनिक क्षेत्र में माक्र्सवाद एक बहुत बड़ी सफलता व दार्शनिक उपलब्धि के रूप में हमारे सामने खड़ा हुआ। इस प्रकार विकल्प हीनता की स्थिति का समापन व अंत हुआ पर हमें समझना चाहिए कि कोई भी दर्शन अपने आप मंे सम्पूर्ण नहीं होता। देश काल व परिस्थियों के मुताबिक इसमें बदलाव स्वभाविक है। दकियानुश व पुराणपंथी माक्र्सवादीयों व वामपक्षी आरोप द्वारा इस बदलाव को संसोधन वाद, प्रति क्रांतिवादी अथवा पुनउत्र्थनवादी कहकर खारीज करना ना समझी पूर्ण पहल कदमी होगी।

      1917 की रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति मात्र माक्र्स वादी दर्शन के आधार पर नहीं हुई; बल्कि रूस की भौतिक वादी सामाजिक आर्थिक संरचना के मुताबिक लेनिनवाद की जरूरत पड़ी। रूसी क्रांति का दार्शनिक आधार माक्र्सवाद लेनिनवाद था। ठीक इसी प्रकार 1949 की चीनी क्रांति से माक्र्सवाद लेनिनवाद के साथ माओवाद जुड़ गया। और माक्र्सवाद लेनिनवाद माओवाद बना; जो चीनी नव-जनवादी गणतांत्रिक क्रांति का दार्शनिक आधार बना। इसी तरह भारत में 2017 की माओवादी क्रांति का आधार सिर्फ माक्र्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद नहीं होगा बल्कि भारतीय संदर्भ के मुताबिक इसमें गांधीवाद भी जुड़ जायेगा। वह गांधीयन-माओवाद बन जायेगा; जो एक नया दर्शन होगा। यही नहीं क्रांति के घटक और मुख्य शक्तियाँ व हरावल दश्ता भी बदल जायेंगे। रूसी क्रांति सर्वहारा वर्ग ने की चीनी क्रांति वहा के किसानों ने, पर भारतीय क्रांति में ऐसा नही होगा; क्योंकि भारत की भौतिकवादी सामाजिक संरचना रूस और चीन से भिन्न है। इस देश की जनसंख्या में छात्र और नौजवानों का अनुपात आधा से अधिक अर्थात 55 प्रतिशत है जो पढ़े लिखे और समझदार है। ये छात्र और नौजवान जंगल और समतल से शहर और महानगर में आ गये हैं। जरूरत इस बात की है कि इन छात्र नौजवानों को माक्र्सवाद, लेनिनवाद व माओवाद की शिक्षा दी जाय। इनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है इसीलिए भारतीय क्रांति का केन्द्र बिन्दू रोजगार होगा; भूमि अथवा जमीन नहीं होगी नयीपीढ़ी छात्र और नौजवानों को तो छोड़ दीजिये गाँव का किसान भी खेती करना नहीं चाहता क्योंकि कि खेती में पैसा नहीं है आमदनी नहीं है लाभ नही है श्रम और मेहनत बहुत ज्यादा है इसीलिए खेती उपेक्षा और अपमान का धंधा हो गया है। छात्र और नौजवान भी खेती करना अपमान समझते है इसीलिए क्रांति का काम खेती को सम्मान का धंधा बनाना भी है। क्रांति के बाद हमें ऐसा कुछ करने की जरूरत होगी ता कि लोग कहे कि हम नौकरी छोड़ के खेती करेंगें। आज भी हमारी राष्ट्रीय आय में खेती का योगदान सबसे अधिक है। यह 69 प्रतिशत लोगों को रोजगार दे रहा है। फिर भी इसे सम्मान प्राप्त नहीं है। उद्योग धंधे मात्र 6 प्रतिशत लोगों को ही रोजगार प्रदान कर रहे है। सेवाक्षेत्र मात्र 25 प्रतिशत आबादी को ही रोजगार मुहैया करा रहा है; बावजूद उद्योग धंधों व सेवाक्षेत्र को सम्मान प्राप्त है। यह इस देश की बहु संख्यक आबादी का अपमान है। क्रांति इसलिए भी जरूरी हो गई है।

      सवाल यह भी कि जिस धंधे में 69 फीसदी आबादी लगी हुई है, राष्ट्रीय आय में उसका योगदान सिर्फ 14 प्रतिशत कैसे हुआ है? और जिस काम में यानी सेवाक्षेत्र जो सिर्फ 25 प्रतिशत लोग को रोजगार प्रदान कर रहा है राष्ट्रीय आय में उसका योगदान 58 प्रतिशत कैसे हो गया? तथा 6 प्रतिशत रोजगार देने वाले उद्योग-धंधों का योगदान 28 प्रतिशत कैसे हो गया? क्रांति इस लिए भी कि यह अर्थशास्त्र नही8 अनर्थ शास्त्र है। और मनमोहन तथा मोनटेक सिंह सरीखे लोग अनर्थशास्त्री है।

      हमारे देश के किसानांे ने इतना अधिक अन्न उपजाया कि अनाज रखने के लिए जगह नहीं है। अनाज सड़ रहा है। फिर भी इस देश की महिलायें बच्चे मजदूर किसान कुपोषित है। फिर 2017 की क्रांति क्यों नहीं है? प्रश्न यह भी कि आधी वस्तुयंे नियंत्रण में और आधी अनियंत्रित क्यों? किसानों के उत्पाद चावल, चीनी, चना, गेहूँ अगर नियंत्रित तो फिर उद्योग पतियों के उत्पाद बीज, खाद, कीटनाशक, दवा, कपड़ा, साबुन, पेट्रोल, डिजल, कार, मोटर का नियंत्रण क्यों नहीं? क्रांति इसलिए भी ताकि नव जनवाद समाजवाद व साम्यवाद की दिशा में पहल कदमी हो।

      हमारे देश के कम्यूनिस्ट भारत के समाजिक भौतिकवादी ताने बाने की अनदेखी व अवहेलना करते हुए भारत को जाति व्यवस्था को समझने में विफल रहे व वर्ग पर विशेष जोर देते है। उन्होंने इस बात को समझा ही नही कि भारत का समाज एक बहुजातियें व बहुराष्ट्रीय समाज है; और यही इस देश का ऐतिहासिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक भौतिकवाद है। इससे पैदा संघर्ष ही वर्ग संघर्ष है। वर्ग तो मात्र एक आर्थिक इकाई होता है पर जाति में आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक घटक विशेष तौर पर काम करते है। सांगठनिक व राजनैतिक दृष्टि से भी जाति का महŸव वर्ग की अपेक्षा अधिक दमदार सिद्ध हो रहा है। जिसका साम्राज्यवादी, सामंती व बर्जुवा राजनीतिक दल तो भरपूर फायदा उठा रहे है। पर क्रांतिकारी वाम पंक्षियों की इस परे ठोस व स्पष्ट दृष्टिकोण क्यांे नहीं आ पा रहा है? जिसका उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसका क्रांतिकारी वामपंथीयों द्वारा सांगठनिक लाभ उठाया जाना चाहिए। जिस क्षेत्र  में जिस जाति की बाहुल्यता हो उस क्षेत्र में उसी जाति के काजकर्ता का नेतृत्व होना चाहिए।

      यह नहीं भूलना चाहिए कि अलग-अलग चाबियों से अलग-अलग ताले खुलते हंै। सही मायने मंे कहा जाए तो जातियाँ क्रांति में हर नजरिये से सहायक है। बाधक होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता; हालांकि वर्ग की अवधारणा का भी क्रांति के नजरिये से काफी महत्व है। बावजूद भारत में पंूजीपति वर्ग को अगर छोड़ दिया जाये तो उतनी प्रभावी नहीं है दरअसल भारत में जाति और वर्ग समान ही है जाति वर्ग व्यवस्था का ही अंग और सोपान है तथा वर्ण और वर्ग एक ही चीज है; इनके बीच विशेष अंतर नहीं है।

      2017 भारत में एक बात तय है कि क्रांति कम्युनिस्टों के नेतृत्व में ही होगी बेशक कम्युनिस्टों के भी अपने कई राजनीतिक दल व संगठन है; मसलन सीपीआई सीपीएम, सी पी आई एम एल और सीपी आई0 माओवादी, सी पी ई माओवादी जिसे जनता का विश्वास प्राप्त है और क्रांति कारी समझा जाता है। जो सही भी है इन पर अतिवामपंथी होने का आरोप-प्रत्यारोप जारी है पर दुनिया में कम्युनिस्टों की एक पहचान व कसौठी होती है और वह यह कि उन्हे हमेशा हरवक्त, हर हालत में क्रांति नजर आती है और जिन्हें क्रांति नजर नहीं आती अथवा शून्य दिखाई पड़ती है वे निःसंदेह कम्युनिस्ट नहीं है और जिन्हें क्रांति दिखाई पड़ती है; वे असली कम्यूनिस्ट हैं। क्रांतिकारी व क्रांतिवादी कम्यूनिस्टों के बीच एकता जरूरी है आज की परिस्थियों में यह विशेष स्लागेन है ’’क्रांति कारियों की एकता क्रांति का रास्ता’’ चाहे वे क्रांतिकारी कम्यूनिस्ट किसी भी राजनीतिक दल अथवा संघटन में हों।

      जहाँ तक जन संगठनों का सवाल है तो जन संगठन से कहाँ कोई इनकार करता है पर यह आरोप बेबुनियाद है कि क्रांतिकारी कम्युनिस्टों व क्रांतिवादियों पर हथियार हावी है। अथवा सशस्त्र क्रांति एक हौवा है इस सवाल का जवाब हमें इस आलोक में देखना चाहिए कि भारतीय साम्राजवादी दलाल व राज्य के पास कितने हथियार है? कितने बड़े पैमाने पर भारतीय राज्य जिसका वर्ग बड़े पैमाने पर भारतीय राजा जिसका वर्ग चरित्र  फासिस्ट है; हथियारों का आयात कर रहा है। अतः हथियारों के हावी होने के तर्क में कोई दमखम नजर नहीं आता यह बुर्जुवापन व यथास्थिति कायम रखने वालों का भड़ास मात्र है; जबकि भारतीय संस्कृति सशस्त्र क्रांति की संस्कृति रही है इसीलिए सीपीआई माओवादी और क्रांतिकारी खेमे में भी ऐसे महानुभावों की कोई कमी नहीं जिन्हें क्रांतिनजर नहीं आती। जिनकी तुलना आप का उसकी ट्राटस्कीय काउस्की की मेंशेविकों अथवा कोमिंताग से कर सकते है। जो दकियानुस व पुराणपंथी माक्र्सवादी है। जो दीर्घ कालीन जन युद्ध के नाम पर क्रांति को माक्र्सवाद, लेनिन वाद व माओवाद के क्लासिकल ढांचे से बाहर नहीं निकालने देना चाहते है। क्रांति को भारत में आये सामाजिक भौतिक वादी बदलाव के अनुरूप रणनीति, कार्यनीति व कूटनीति का नाम सुनते ही बिदक जाते है। जो अभी तक नहीं समझ पा रहे कि 2017 क्रांति दूर की कौड़ी अथवा दिवा स्वान नहीं; बल्कि एक तल्ख सच्चाई है।

      दीर्घ कालीन जनयुद्ध तो ठीक है पर इसकी कोई गणना कोई सीमा कोई अनुमान है भी अथवा नहीं दस वर्ष, बीस वर्ष, तीस वर्ष कितने दिन? चीन में 1921 में 1898 कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई 1949 में क्रांति सम्पना हो गई रूस में कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई 1917 में वहाँ भी क्रांति सम्पन्न हो गई। भारत अपवाद क्यों है? कही इसलिए तो नहीं कि कम्युनिस्टों की क्रांति में कोई अभिरूचि है ही नहीं और वेे मात्र रवाना पुरी में लगे हुए है। यही भारत का इतिहासिक भौतिकवाद है।

      इस देश में कम्यूनिस्टों के बीच यह बहस का मुद्दा बना हुआ है कि देश में समाजवादी क्रांति होगीा नव जनवादी क्रांति होगी या फिर साम्यवादी क्रांति होगी? इस देश की विशेष परिस्थितियों के मद्देनजर यहाँ तीनों क्रांति या एक साथ होंगी। यहाँ तो जंगलों में आज भी जंगल युग यानी साम्यवाद समानता है। समतल में जो जमीन भूमि है वह भूमिहीन को दिया जायेगा यानी जब नवजनवादी क्रांति होगी तथा शहरों में घोर पूंजीवाद है यानि समाजवादी क्रांति होगी।

      हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मुख्य दुश्मन साम्राज्यवाद है सामा्रज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था है अर्थात समाजवादी क्रांति होनी चाहिए अर्थात रोजी-रोजगार व रोटी की लड़ाई यानी समाजवाद की लड़ाई; सम्राज्यवादी तथा उनके दलाल; सीपीआई माओवादी को अपना मुख्य दुश्मन मानते हैं; यानी भारत एक समाजवादी क्रांति के दौर से गुजरने वाला है।

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