गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

गांधीयन माओवाद यानी 2017 की क्रान्ति :

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  पूंजीवाद के बरक्स समाजवाद मात्र एक स्वप्न नहीं, बल्कि सच्चाई है जिसका अपना अतीत व भविष्य ही नहीं वर्तमान भी है। बेशक समाजवाद एक नये समाज की मांग करता है। कैसा होगा वह समाज; इसकी कल्पना कम सुखद नहीं.... इतना तो तय है कि समाजवादी समाज सामंती व पूंजीवादी समाज व मूल्यों से भिन्न होगा... जहां नारी व पुरूष पृथक-पृथक इकाई होंगे... समाजवादी समाज सामंती व पूंजीवादी विसंगतियों से भी मुक्त होगा... समाजवादी समाज में विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी होगी...गाँधी के बारे में अगर आपने लिखा है कि अपने आंदेलन का हिस्सा बनाओ;ं तो कोई भी नक्सलवादी नाराज नहीं होगा... क्योंकि वह इस रणनीति से वाकिफ है कि सड़कों पर गाँधीवादी बन के; और जंगल में माओवादी बनके काम करने में ही बुद्धिमŸाा है... भला इसमें नराजगी की कौन-सी बात है?...शायद आपको पता नहीं है, अब माओवादी भी गांधीयन माओवाद की बात करने लगे हंै। इससे आगे बढ़कर अम्बेडकर माओवाद और लोहिया माओवाद की भी.... अगर आप इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कम्युनिस्ट आंदोलन का कोई भविष्य है तो यह अल्ट्रा लेफ्ट में हैं; तो आपका विश्लेषण सटीक है।

सचमुच इस वक्त मुल्क में माओवादियों के लिए सहानुभूति बढ़ी है; और इस सहानुभूति को शासक वर्ग भी समझता है; उसकी नीति यह है कि चुन-चुन के बहुत अच्छे कैंडर है; उन्हें मार दें... यह एक तल्ख सच्चाई है कि माओवादियों की प्रथम पंक्ति के नेता या तो जेल में बंद है; अथवा मार दिये गये। मुठ्ठीभर जो जिंदे हैं; वे जंगलों में सिमटे हंै। शहरी और मैदानी इलाकों में दूसरी पंक्ति ने नेतृत्व सम्माल लिया है... तथा तीसरी पंक्ति प्रशिक्षण ले रही है अगर सर्वाधिक अमीर एक फीसदी वयस्क लोगों के पास 40 फीसदी वैश्विक सम्पदा है तथा सर्वाधिक 10 फीसदी अमीरों के पास 85 प्रतिशत वैश्विक सम्पदा... तो फिर यह आंख खोलने वाली है तथा अस्वीकार्य है...इससे यह प्रमाणित होता है कि अमीर-गरीब इंसान का बनाया हुआ है...ईश्वर द्वारा नहीं। इस विषमता को संघर्ष द्वारा बदला जा सकता है।

सच पूछिये तो माक्र्सवाद की प्रसांगिकता उसकी मौलिकता में है न कि उसके पुनर्रचना में... सवाल यह भी कि पूंजीवाद को कटघरे में न खड़ा किया जाय तो; क्या महिमा मंडित किया जाय? अगर माक्र्सवाद और समाजवाद रेतीले मचान पर खड़े हैं? तो क्या पूंजीवाद अपनी गर्दन तक दलदल में नहीं धंसा है? पूंजीवाद की विनाशकारी व संहारक क्षमता अर्श पर है; तो क्या इस भय से समाजवाद को विस्मृत कर दिया जाय... गला घांेट दिया जाय व उसका नाम तक न लिया जाय...पूंजीवाद आत्मरक्षा और दीर्घ जीवनावधि के लिए नये-नये शास्त्रों का निर्माण व इस्तेमाल करता है। वह परमाणु बमों का बिस्फोट व रासायनिक नाकाम बमों की वर्षा कर सकता हैं तो क्या उसकी पराधीनता व गुलामी को स्वीकार लिया जाय व समाजवाद तथा साम्राज्यवाद की चाकरी की जाय समाजवाद से नाता तोड़ लिया जाय... ऐसा भिरूपन तो कोई कलमघसीट पूंजीवादी लेखक ही प्रदर्शित कर सकता है। समाजवादी कतई नहीं.. क्योंकि उसे पता होता है कि जनता सबसे बड़ा लौह कवच होती है; और क्रांति उसके हृदय में समाहित होता है। मध्यम वर्ग एक गौड़ वर्ग है; जो सशस्त्र रेडिकल क्रांति को रोकने का दमखम नहीं रखता... जो कि मुखा पेक्षी पिछलग्गू वर्ग है....वह सिर्फ प्रति क्रांतिकारी नहीं होता; बल्कि इस वर्ग से क्रांतिकारी भी आते हैं...साथ ही साथ क्रांति में इस वर्ग के हितों की अवहेलना नहीं की जाती और सर्वहाराकरण का भरपूर मौका दिया जाता है... शक्तिशाली मध्यम वर्ग रेडिकल बदलाव नहीं होने देगा; एक पूंजीवादी साम्राज्यवादी सोच है... माओवादी क्रांति उसके हितों को सुरक्षा प्रदान करेगी... माओवादी क्रांति मात्र उन लोगों के खिलाफ है; जो विश्व के 85 प्रतिशत सम्पदा पर कब्जा जमाये हुए हैं...सर्वहारा और अर्धसर्वहार वर्ग को क्रांतिकारी राज्य द्वारा सब्सिडियां प्रदान कर समाजवाद व साम्यवाद की मंजिल हासिल की जा सकती है... सशक्त मध्यम वर्ग को क्रांति विरोधी करार देना एक गैर माक्र्सवादी सोच है... माओवादियों की नजर में तो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग भी क्रांति विरोधी नहीं, बल्कि क्रांति का समर्थक है साम्राज्यवाद के लक्षणों व प्रभावों का चाहे आप जितना ताŸिवक मीमांसा करें...पूंजीवाद व साम्राज्यवाद कभी रचनाशील हो ही नहीं सकते।

छŸाीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा, सुदूर अंचलों से नयी दिल्ली तक सशस्त्र लौंग मार्च की अब क्रांति के लिए जरूरत ही नहीं रही...दरअसल माओवादी घेरने नहीं, जोड़ने जा रहे हैं... जिसे सुदूर अंचलों से आये छात्रों, नौजवानों और बुद्धिजीवियों ने पहले से जोड़ रखा है। आखिर शहर के गरीब गुरबे गांवों से ही तो आयें हैं शायद आपको पता नहीं शहरों में भी माओवादी क्रांतिकारी पैदा हो चुके हैं... अतः जंगल और समतल से घेरना नहीं.. जोड़ देना है... बेशक वैश्विक साम्राज्य सिर्फ मूक दर्शक नहीं बना रहेगा...उसने पैट्रियेट मिसाइलें, ड्रोन, रोबोट सैनिको का अविष्कार किया है..सातवां बेड़ा और नाटों सेनायें का काबुल में मौन बैठी है? फिर वहां से अमेरिकी साम्राज्यवाद के पांव उखड़ क्यों रहे हैं और वार्ता को क्यांे लालायित है? भारतीय सैनिक कभी क्या काबुल नहीं जायेंगे... रचनात्मक माक्र्सवादी पद्धति के क्या मायने? कहीं आत्मसमर्पण और दलाली तो नहीं? अथवा समाजवादी उद्देश्यों से धूर्ततापूर्ण पलायन तो नहीं।

यह भी सही है कि भारतीय वाममंथ का दायरा बहूुत सीमित दिखाई देता है...और सी0 पी0 एम0 को देखें तो उसमे उपर बैठे लोग सारे के सारे ब्राह्मण नजर आयेंगे... केरल में भी सबके सब नायर और ब्राह्मण ही हैं... और यह भी सम्भव नहीं कि एक ही समय में आप राजा भी बने और क्रांतिकारी भी सचमुच यह एक फरेब के सिवा और कुछ भी नहीं... जिस तरह से माओवादी नेता आजाद व किशन जी को फेक इन्काउन्टर के बाद तड़पा-तड़पा के मारा गया। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मृत जवान के पेट में बम डाल देने को क्या आप वाहियात कहेंगे? ऐसा कैसा मुमकिन है कि एक तरफ तो साम्राज्यवाद की विनाशक शक्ति पर आप मुग्ध हों .... और दूसरी तरफ माओवादी रणनीति की भत्र्सना करें सानी सोढ़ी के साथ जो कुछ हुआ उस कुकृत्य की कोई प्रतिक्रया होगी अथवा नहीं...इसके मद्देनजर क्या आप अपना समर्थन देना बंद कर देंगे नहीं न...शठ शठ्ायम समाचरेतकृ।

विभिन्न अस्मितायें मसलन जातियां, भाषायें राष्ट्रीयतायें समाजवाद के निर्माण में साधक है; बाधक नहीं है क्यां सामंतवाद व साम्राज्यवाद के नाम पर आपकी इच्छा इनके उच्छेदन व विलोपन की हैं.? विभिन्न राष्ट्रीयताओं के दमन के बिना क्या साम्राज्यवाद का सृजन सम्भव है? और क्या यह रचनाशीलता है? कतई नहीं...जहां तक जातियों का सवाल है; यह कोई आसामान से टपकी हुई व्यवस्था नहीं है.. यह बिल्कुल सुस्पष्ट पता है कि जातियां कैसे अस्तित्व में आई दरअसल जनों व जनपदों में ही इसके भ्रण पल रहे थे...दस्तकारी कास्ताकाीी व धातुकारी ने जातियों के विकास के लिए जमीन तैयार की। वर्ण व्यवस्था में जातियों का निर्माण नहीं किया... यह तो क्लासिफिकेशन आॅफ द सोसाइटी है.... जातियां थीं; जिसे वर्ण व्यवस्था ने क्लासिफाई किया। जातियां स्वयं में एक सामंती व सामाजिक संगठन है; जिसका सामंतवाद व पूंजीवाद अपने पक्ष में सचेतन ढंग से प्रयोग कर रहे है...सभी सियासी पार्टियों के जातीय आधार हैं; और वे तोड़ने की जगह; इन्हें जोड़ रही हैं...क्रांतिकारी माओवादियों व समाजवादियों को भी अपने संगठन को मजबूत करने में इनका बुद्धिमŸाापूर्ण प्रयोग करना चाहिए; बजाय इन्हें तोड़ने के चक्कर में पड़ने के सामाजिक द्वन्दवाद व पूंजीवाद के खात्में के साथ ही यह सम्भव है यह सिर्फ हमारा मनोगतवाद है कि सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के रहते, जातियां समाप्त हो जायेगीं...। समाजवादी व साम्यवादी समाज के सृजन व निर्माण के साथ जातियों का भी विलोपन हो जायेगा।

काश! हम यह समझ पाते कि साम्राज्यवाद पांच खम्भों पर खड़ा है; जो निम्नलिखित है; सामंतवाद, पूंजीवाद, साम्प्रदायिकवाद, जाति व धर्म तथा आतंकवाद साम्राज्यवाद के उन्मुलन के साथ ही इनका विलोपन होगा... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये दुधारी तलवार हैं...इनका समापन इस बात पर निर्भर है कि इनके संचालन में हम कितना कुशल हैं...सचमुच माक्र्स ने मानवीय दुनियां की हर बुराई को द्वन्दात्मक भौतिकवाद के वैज्ञानिक तरीके से समाप्त करने की सलाह दी है। बेशक सांस्कृतिक वर्ग संघर्ष के बिना यह सम्भव नहीं है...और सवाल यह भी कि आखिर कार दुनिया में हो रहे बदलावों, खासकर विज्ञान व तकनीकी तरक्की के बाद अगर माक्र्स की बहुत सारी स्थापनाओं में सुधार की जरूरत है; तो क्यां वे उनकी मूल स्थापनाओं मसलन द्वन्दात्मक भौतिकवाद, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व, वर्ग संघर्ष, और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत में बदलाव की जरूरत हैं?... कतई नहीं प्रश्न यह भी कि घालमेल करने की अपेक्षा क्या बेहतर नहीं होता है कि लेखक गण अपेक्षित सुधारों को सुस्पष्ट चिन्हित करते? दरअसल इससे उनकी धुंधली दृष्टि का सहज ही आभास हो जाता है। अपनी बात कहने में वे भयभीत क्यों लगते हैं?

जहां तक जेंडर का सवाल है अल्ट्रावाम इस समस्या के समाधान में एक हद तक सफल रहा है....महिला मुक्ति का मार्ग तब तक अपनी मंजिल तय नहीं कर पायेगा; जब तक महिलाओं व पुरूषों का पृथक एवं स्वतंत्र इकाई के तौर पर विकास न हो... हमें ’’ब्रेक मैरेज बी सोशलिस्ट’’ के नारे को चरितार्थ करना ही होगा। लिवइनरिलेशनशिप इसका पहला पायदान है। दरअसल सबसे बड़ी विडम्बना तो यही है कि हम सामंती व पूंजीवादी परिवार की अपेक्षा रखते हैं... कि सामंती व पूंजीवादी परिवार कायम रहें... आखिराकर हमंे यह कब अक्ल आयेगी कि समाजवाद में पति और पत्नी नामक रिश्ते का भी विलोपन हो जायेेगा अर्थात पति-पत्नी न होकर; साथी हो जायेंगे...हमें शादी नहीं साथी चाहिए के स्लगोन को चरितार्थ करना होगा कमोबेस अल्ट्रा माओवादी ऐसे ही रहते हैं।

बेशक जमीनहीन अस्थायी मजदूर या शहरी गरीब राजनीतिक विमर्श से बाहर हैं... पर चिंतन प्रक्रिया से बाहर नहीं हैं; साथ ही साथ पूंजीवाद के बर्बर पशु को खुला नहीं छोड़ा जा सकता। एक व्यापक संयुक्त मोर्चे की जरूरत है; जिससे किसी को इन्कार नहीं है; पर फिर वही बात कि एक ही संगठन सब कुछ नहीं कर सकता...पहलकदमी की आवश्यकता है...कमान थामने की जरूरत है माओवाद गांधीवाद ओर अम्बेडकरवाद को मिलके आगे बढ़ना होगा...वाद प्रतिवाद व संवाद के माध्यम से कुछ भी असम्भव नहीं...जहां तक नेपाल में माअेावाद का प्रश्न हेै? माओवादी पार्टी के भीतर विभाजन आवश्यक था तथा भारत व नेपाल में क्रांति एक ही साथ सफल होगी...हमारी राष्ट्रीयतायें भिन्न जरूर हैं पर हमारी आवश्यकतायें समान हैं-क्रांति में सम्मिलित भागीदारी की जरूरत है; जिसका दर्शन होगा.. गांधीयन माओवाद.. माओवाद समाधान नहीं; बल्कि समाधन तक पहुँने का रास्ता है।
:-कवि आत्मा बी0 एच0 यू0 वाराणसी मो0 नं0-07505586748

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