शनिवार, 22 जून 2013

माओवादी हमला या व्यवस्था बदलाव के लिए जनयुद्ध:

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      सच पूछिये तो यह साम्राज्यवादी, सामंतवादी, पूंजीवादी व्यवस्था व मूल्यों पर हमला है, न लोकतंत्र व लोकतांत्रिक मूल्यों पर.......... कोई चुनाव लड़ने अथवा जीत जाने से लोकतंात्रिक नहीं बन जाता। दरअसल उसके द्वारा किये हुए कार्यों से ही पता चलता है कि सचमुच वह कितना  लोकतांत्रिक अथवा फासीवादी है, चुनाव लोकतंत्र की कसौटी नहीं हो सकता। लोकतंत्र के नाम पर काॅरपोरेट तंत्र के लिए काम करने वालों को भला लोकतांत्रिक अथवा जनतांत्रिक या फिर लोकतांत्रिक व जनतांत्रिक मूल्यों का हिमायती कैसे कहा जा सकता है? सही में यह विचार करने का समय आ गया है कि माओवादियों का यह हमला, लोकतंत्र पर हमला है या फिर चुनावों द्वारा पैदा जांेकतंत्र व करप्ट तंत्र पर है..... लोकतंत्र अगर स्वयं को लूटतंत्र में बदल दे, तो क्या सचमुच वह लोकतंत्र बन जायेगा?

अब जनता व अवाम यह भलीभांति समझने लगी है कि चुनाव का सीधा सादा अर्थ है पूंजीपतियों का चुनाव। आज हमारी लोक सभा, विधानसभायें व राज्य सभा करोड़पतियों के हाथ गिरवी है। क्या पूंजीपतियों का यह लोकसभा व विधानसभाओं पर राजनीतिक कब्जा लोकतंत्र है? इसीलिए माओवादियों का यह हमला उस चुनावी राजनीतिक व्यवस्था पर है; जो काॅरपोरेट तंत्र व भ्रष्टतंत्र को विधानसभाओं, लोकसभाओं व राज्य सभाओं पर राजनीतिक कब्जा दिलाने का काम करता है; और उन्हीं लोगों के खिलाफ कानून बनाने का काम करता है, जो मतदान कर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। इससे बड़ा विश्वासघात अपनी जनता व अवाम के साथ भला और क्या हो सकता है? अगर सचमुच यही जनतांत्रिक व लोकतांत्रिक मूल्य हंै, तो फिर ये कारपोरेट घराना व पूंजीपतियों के लिए अमूल्य व बहुमूल्य तो हो सकते हैं, पर जनता के लिए कौड़ी काम का नहीं। यह माओवादी हमला इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जन और जनतंत्र के बीच गहरी व चैड़ी खाई पैदा हो चुकी है। अगर अवाम अपने जन प्रतिनिधियों की जान का गहक बन जाये; तो समझना चाहिए कि यह आक्रमण नहीं, जनाक्रोश है.... तथाकथित जनतंत्र जनाक्रोश की चपेट में है। इसे आप आतंकवाद कहें, नक्सलवाद कहें अथवा माओवाद कहें....... दरअसल यह हमला लोकतांत्रिक मूल्यों पर नहीं, छद्म लोकतांत्रिक मूल्यों पर है, जिसे आपने नव आर्थिक उदारवाद के नाम पर गढ़ा है। सवाल यह भी पैदा होता है कि कौन भटकाव में हंै? आप भटकाव में हैं या फिर माओवादी भटकाव में हैं। लोकतांत्रिक वैल्यूज का उन्मूलन, ह्रास व पतन किसके द्वारा किया जा रहा है? आपके द्वारा या माओवादियों के द्वारा।

यह माओवादी हमला उस अति औद्योगीकरण व कारपोरेटीकरण के खिलाफ है; जो जंगल, समतल (गावों) व शहरों को निगलने की तैयारी में है। डेवलपमेंट व विकास जिसका स्लोगन है.... जिसने जीडीपी और पीपीपी को अपना प्रतिमान बना रखा है। जिसके तहत मुट्ठीभर नव अभिजात व कुलकों के विकास को सारे देश व राष्ट्र का विकास बताया जा रहा है, जिसका नतीजा है; आम जनता का विस्थापन व प्राकृतिक सम्पदा तथा स्रोतों पर काॅरपोरेट व पूंजीपति घरानों का कब्जा..... जिसे हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर देश के नौजवानों को बेरोजगार बनाया जा रहा है। नौनिहालों को कुपोषण के नरक में धकेला जा रहा है। और महिलाओं का रक्त चूसा जा रहा है। यह है कारपोरेट विकास का माॅडल, यानी चंद लोगों के गाल पर लाली है; जिसके एवज में हर तीसरे भारतीय का पेट खाली है....... थू थू ऐसे विकास को, तोबा ऐसे विकास को। यह उस बड़बोलेपन पर भी हमला है; जो कह रहा था कि माओवाद का दो तीन सालों के भीतर उन्मूलन कर दिया जायेगा। माओवादियों की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है। उनकी कमर टूट चुकी है...... क्योंकि उनके तमाम बड़े लीडरों की या तो हत्या की जा चुकी है अथवा फिर वे जेलों में बंद हैं। माओवादियों को नेतृत्व विहीन करने की साजिश कांग्रेस अथवा भाजपा पर भी तो लागू होती है। यानी लक्ष्य एक दूसरे केा नेतृत्व विहीन करना है। आखिर यह लोकतंत्र है या कत्लतंत्र? दरमा घाटी के दर्दनाक मंजर को इसी संदर्भ में लिये जाने की जरूरत है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 16 हजार माओवादी पूरे भारत में जेलों में बंद हैं...... और इतने ही मारे जा चुके हैं। नेतृत्व विहीनता अन्ततः अराजकता को ही जन्म देती है। इस तरह उन लोगों के लिए जो यह कहते हुए अपने बड़बोलेपन का प्रदर्शन कर रहे थे कि दो साल के भीतर माओवादी नेता किशनजी पश्चिम बंगाल, 24 नवम्बर 2011 को...... ललेश उर्फ प्रशान्त जोनल कमांडर झारखंड राज्य के चतरा जिला के कुन्दा थाना अंतर्गत लकड़मंदा खुसेला गांव व सुधाकर रेड्डी दंडकारण्य में मार गिराये जाने से नक्सलियों की नींव हिल चुकी है, के लिए सख्त चेतावनी है कि माओवादियें को कमकर के न आंका जाय। बुर्जुवा कलम घिस्सुओं के लिए यह एक सबक भी हैै। जैसा कि माओवाद कोई आतंकवादी संगठन नही है, जो भीड़ भरे बाजार, मंदिर, मस्जिद, सिनेमाघर, कोर्ट कचहरी व खेल के मैदानों में बम विस्फोट कर दहशतगर्दी के साथ जान माल की हानि पहुंचाता हो। अपितु यह एक जन संघर्ष व जन विद्रोह है। सशस्त्र क्रांतिकारी संगठन है.... जिसका राजनीतिक उद्देश्य है; पूंजीवादी जनतंत्र की जगह मेहनतकश जनता का नव जनतंत्र प्रस्थापित करना....... जो आहिस्ते-आहिस्ते कामयाबी की तरफ अग्रसर भी है। जहां तक बदला लेने का सवाल है 27 मार्च की रात से लेकर 28 मार्च की सुबह तक चले लकड़मंदा वाली घटना में बेशक माओवादियों का बड़ा नुकसान हुआ। इस मुठभेड़ में माकपा माओवादी की बिहार झारखंड विशेष क्षेत्रीय समिति के तेज तर्रार सदस्य लवलेश सिंह, बिहार झारखंड समिति के प्लाटून कमांडर जयकुमार यादव, जोनल कमांडर धर्मेन्द्र यादव, कोयल शंख जोन के कमांडर प्रफुल्ल यादव इत्यादि माओवादी लड़ाकों के मारे जाने से झारखंड के पुलिस महानिदेशक का खुश होना स्वाभाविक है; पर इससे पुलिस का मनोबल कैसे बढ़ा? क्या टीपीसी द्वारा माओवादियों की हत्या को वे अपनी सफलता मानते हैं? इसलिए कि माओवादियों को नुकसान पहुंचा रहे ऐसे संगठनो को पुलिस का परोक्ष समर्थन प्राप्त है...... क्योंकि स्थानीय चश्मदीदों का कहना था कि कोबरा फोर्स तड़के चार बजे लकड़मांदा पहुंची...... उन्होंने टीपीसी पर बिल्कुल ही गोलियां नहीं चलाई; बल्कि उन्हें पकड़े गये माओवादियों को अपने साथ ले जाने दिया। इससे झारखंड पुलिस और टीपीसी के बीच की मिली भगत का अनायास ही खुलासा हो जाता है। बेशक सीपीआई माओवादियों ने भी अतीत में टीपीसी के कई बड़े नेताओं की हत्या की है। टीपीसी और सलवाजुडुम के बीच कोई खास अंतर नहीं है; जिसे 5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध और असंवैधानिक करार दिया है। बावजूद इसके टीपीसी का माओवादियांें के खिलाफ इस्तेमाल क्या संवैधानिक है?

इस संदर्भ में माओवादियों का कहना है कि वर्षों से आपसी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे माओवादियों और टीपीसी के बीच उस रात वार्ता की बात तय थी। टीपीसी ने धोखा दिया। टीपीसी ने पहले से ही इलाके की घेरा बंदी कर रखी थी...... और इसके समानान्तर पुलिस वालों की भी घेरा बंदी थी। इस दायरे में आते ही माओवादियों के बड़े लड़ाके आसानी से घेरकर मार दिये गये। उनके हथियार लूट लिये गये तथा टीपीसी वाले दो दर्जन माओवादियों को बंधक बनाकर ले जाने में सफल रहे। यह है लोहा से लोहा काटने की नीति; जिसके परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं।

माओवादियों ने एक से सात अप्रैल तक प्रतिरोध सप्ताह मनाया व  बिहार झारखंड बंद का एलान किया। चार अप्रैल को झारखंड के गुमला जिले में अंधाधंुंध फायरिंग करते हुए माओवादियों ने पुलिस के पांच जवानों की हत्या कर दी और उनकी राइफलें लेकर भाग गये। छः और सात अप्रैल को बंद के दरम्यान; गया जिला मुख्यालय से 100 किमी0 दूर डुमरिया में माओवादियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंग से सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के चार जवान घायल हो गये। मुजफ्फरपुर में दो बसों और एक ट्रक को जला दिया गया। साथ ही साथ माओवादियों ने पोस्टर चिपकाया कि लकड़मंदा के वीर शहीदों का बदला लेंगे.....

2004 में पीपुल्स वार गु्रप, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर आफ इण्उिया सहित 28 संगठनों के विलय से बने माकपा (माओवादी) से पहले ही से एक अलग संगठन के रूप में उभरे टीसीपी का पुलिस से परोक्ष रिश्ता है....... जो लोहे से लोहा काटने की तर्ज पर उसका इस्तेमाल करती है। माओवादियों का कहना है कि टीसीपी पुलिस समर्थित सेना है। कुछ कुछ सलवा जुडूम की तरह....... चतरा और हजारीबाग जिले मे ंपूरी तरह से कब्जा जमा चुके; टीपीसी का गठन 1998 में एक बड़े पुलिस अधिकारी के इशारे पर हुआ था। उसे मिल रहे पुलिस संरक्षण के प्रमाण कई अवसरों पर एम0सी0सी0 के कैडरों ने दिये हैं। 1998 में एमसीसी का एरिया कमांडर ब्रजेश गंझू पीडब्लूजी और एमसीसी के विलय से नाराज चल रहा था। उसने अपने कई साथियों के साथ आत्मसमर्पण की तैयारी कर ली..... इसके लिए उसने झारखंड पुलिस के एक बड़े अधिकारी से सम्पर्क किया। पुलिस अधिकारी के इशारे पर उसने आत्मसमर्पण करने के बजाय टीपीसी का गठन किया। जिसे उसी पुलिस अधिकारी ने भारी संख्या में हथियार उपलब्ध कराये। एमसीसी के लगभग 150 कैडट टीपीसी में शामिल हो गये। पुलिस की बढ़ती शह के कारण टीपीसी ताकवर होने लगी। आरोप तो यहां तक है कि पुलिस संगठनों को टीपीसी द्वारा लेवी का एक बड़ा हिस्सा पहुंचाया जाता है। टीपीसी की तुलना सलवा जुडुम अथवा ग्रीन हंट से की जाती है। इस प्रकार ये दोनों सशस्त्र हथियार बंद दस्ते क्रमशः झारखंड व छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा माओवादियों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए खड़े किये गये थे। सलवा जुड़ुम को न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित किया बल्कि इनके हथियार वापस लेने के भी आदेश दिये। यही नहीं माओवादियों ने इसके कई कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया। कई लोगों का कहना है कि 18 मई को हुई तथाकथित मुठभेड़ में 8 निर्दोष आदिवासी ग्रामीण मारे गये थे। एड्समेटा मुठभेड़ का बदला है यह हमला।

माओवादी टीपीसी से भी बदला लेते हैं। यह बात और है कि टीपीसी धोखे की वजह से हमलावर हुई; पर माओवादी निश्चित ही उनसे इसका बदला लेंगे। इसीलिए लकड़मंदा के इर्द-गिर्द का क्षेत्र सहमा हुआ है। पता नहीं कब कोई अनहोनी घट जाये........

जहां तक छत्तीसगढ़ दरमा घाटी में माओवादियों द्वारा कांग्रेस के परिवर्तन रैली पर आक्रमण का सवाल है...... सामरिक विश्लेषकों के अनुसार माओवादी हमला अब तीसरे चरण में प्रवेश कर चुका है। जो बीते दो चरणों के मुकाबले ज्यादा नुकसानदेह व घातक है। अपने पहले चरण में नक्सली भूस्वामियों और धनस्वामियों को निशाना बनाते थे। वह प्रारम्भिक शुरूआती दौर था। तब नक्सलवाद व्यवस्था के विद्रोह में एक बुद्धिजीवी आन्दोलन के तौर पर देखा जाता था। पश्चिम बंगाल में इस आन्दोलन को व्यापक समर्थन व विस्तार मिला।

दूसरे चरण में नक्सलियों ने सशस्त्र बलों पर हमले शुरू किये। इस चरण में नक्सली आन्दोलन का सीमा विस्तार अधिक हुआ। पूरे भारत में एक लाल गलियारे का निर्माण होने लगा; जो पश्चिम बंगाल से बाहर बिहार, झारखंड, ओडीशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तक आकर ग्रहण कर चुका है। यह नक्सलवाद के लिए संक्रमणकाल था; क्योंकि इस दरम्यान सरकारों ने भी इनके प्रति सहानुभूति का चोला उतार कर; सशस्त्र बलों को इनसे लोहा लेने के लिए जंगलों में भेजा। चूंकि नक्सली गुरिल्ले न सिर्फ युद्ध में माहिर थे; बल्कि इन्हें जंगल के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी। इसीलिए छत्तीसगढ़, झारखंड व ओडीशा के जंगलोें में वे घात लगाकर सशस्त्र बलों को निशाना बनाने लगे।

बीते 25 मई को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के जंगल में कांग्रेस पार्टी के काफिले पर माओवादी हमला बताता है कि अब माओवादियो की लड़ाई तीसरे चरण में पहुंच गई है। बड़ी तादाद में एकजुट होकर एक बड़ी सियासी पार्टी की रैली से लौट रहे नेताओं पर हमले का यह पहला मामला है। इससे पहले जो नेता नक्सली हिंसा की चपेट में आये वे या तो अकेले होते थे या फिर अपने अंगरक्षकों के साथ....... पर यह पहली बार देखा गया कि कई बड़े नेताओं पर एक साथ हमला हुआ। जाहिर है अब नक्सलियों के निशाने पर नीति नियंत, राजनीतिक नेतृत्व व राजनीतिक पार्टियां है। ऐसे हालात में यह राजनीतिक वक्तव्य देना कि नक्सलवाद कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है; बल्कि विकास से जुड़ी है.. एकदम गलत है। दरअसल यह आमूल चूल व्यवस्था परिवर्तन का युद्ध है। जिसमें एक तरफ मेहनतकश, मजदूर, दलित आदिवासी गरीब ग्रामीण जनता है, तो दूसरी तरफ अमीर पूंजीपति कारपोरेट घराने व उनके हितों को संरक्षण प्रदान करने वाली राजनीतिक पार्टियां व सियासी नेता हैं।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं के साथ खून की होली खेलने के चार दिन बाद 28 मई को प्रतिबन्धित नक्सली संगठन सीपीआई (माओवादी) ने हमले की जिम्मेदारी ली है। माओवादियों ने कहा है कि उनका मकसद सिर्फ महेन्द्र वर्मा, नंदकुमार पटेल और कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं की हत्या करना था-सीपीआई (माओवादी) की दंडकारण्य विशेष क्षेत्रीय समिति के प्रवक्ता गुडसा उसेन्दी ने एक बयान जारी कर कहा है कि इसके अलावा हमले में जो निर्दोष मारे गये हैं; उनके परिवार के प्रति हम संवेदना प्रकट करते हैं। उसेन्दी ने सलवा जुडूम के संस्थापक महेन्द्र कर्मा और नन्द कुमार पटेल पर आरोप लगाया कि वे आम लोगों के खिलाफ नीतियों को बढ़ावा दे रहे थे। वी0सी0 शुक्ला के लिए कहा गया है कि वे राज्य में उद्योगपतियों को गलत तरीका से लाभ पहुँचा रहे थे।

उसेंदी ने कर्मा की हत्या को जायज ठहराते हुए कहा है कि वह मांझी जाति से तालुक रखते थे। जो आदिवासियों पर जुल्म ढाती है। बयान के मुताबिक भाजपा और कांग्रेस नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम आन्दोलन चला रहे थे। नेताओं की हत्या कर हमने उन लोगों का बदला लिया है। गृहमंत्री नंदकुमार पटेल के कार्यकाल में छत्तीसगए़ में अर्द्धसैनिक बलो की तैनाती हुई थी। माओवादियों की प्रमुख मांगे हैं- आॅपरेशन ग्रीन हंट तुरंत बन्द हो। सुरक्षा बल वापस भेज दिये जाये। बस्तर में सेना की तैनाती न हो। जेलों मंें बंद नक्सली नेता रिहा हो। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोके।

प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने कहा है कि- ‘‘राष्ट्र नक्सलवाद के आगे नहीं झुकेगा...... देश न तो नक्सलियों के ऐसे हमलांें से आतंकित होगा और न ही इस तरह के कृत्यों से डरेगा। छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर नक्सलियों की हिंसा से राष्ट्र बेहद निराश और स्तब्ध है। लोकतांत्रिक राजनीतिक में हिंसा की कोई जगह नहीं है। बेचारे गृहमंत्री शिंदे आंख के इलाज के लिए अमेरिका गए हुए थे। इस बीच नक्सलियों ने हैवानियत भरा हमला कर दिया। गृहमंत्री जी से काश कोई पूछने वाला होता कि कांग्रेसी काफिले पर हमले से ठीक आठ दिन पहले 17 मई को सीआरपीएफ के जवानों ने एडसमेटा गांव में तथाकथित मुठभेड़ में आठ आदिवासियों सहित तीन बच्चों की हत्या की थी। क्या यह हमला इंसानियत भरा था या हैवानियत भरा ही था? यहां दरअसल गांव के आदिवासी स्थानीय त्योहार ‘‘बीजपंडुम’’ मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। धान की रोपाई से पहले बीजों की पूजा करने के लिए यह त्योहार मानाया जाता है। गांव वालों के मुताबिक पूजा के बीच में ही अचानक उनपर गोलियां चलने लगी। इसमें तीन बच्चों सहित आठ निर्दोष लोगों की मौत हो गई। छत्तीसगढ़ में यह कोई पहली घटना नहीं है; जब सुरक्षाबलों के मुठभेड़ पर सवाल उठाये गये। 2005 से लेकर अब तक राज्य में ऐसी 244 घटनायें घट चुकी हैं। 8 जनवरी 2009 को भी एसपीओ और जिला पुलिस के जवानों ने एक भिड़न्त में 15 नक्सलियों को मार गिराने का दावा किया था। मुठभेड़ के बाद प्रशासन की ओर से बहुत प्रचारित किया गया था कि नक्सलवाद का खात्मा करने के लिए पुलिस का मनेाबल बेहद ऊँचा है। पर जब सामाजिक संगठनों और आन्ध्र प्रदेश के मीडियाकर्मियों ने मामले की पड़ताल की तो पता चला कि पुलिस ने नक्सलियों को पनाह देने के आरोप में ग्रामीणों को एक कतार में खड़ा करके न सिर्फ गोलियों से भून दिया था; बल्कि नरसंहार को जायज ठहराने के लिए उन्हें वर्दी पहनाकर नक्सलवादी प्रमाणित करने का उपक्रम भी रचा था। यह कृत्य कायराना था बहादुराना इसका भी जवाब जनता के दरबार में एक न एक दिन देना ही पड़ेगा। यही वजह है कि यूपीए सरकार द्वारा हजारों करोड़ रूपये फूूंकने के बावजूद नक्सलवाद का खात्मा होना तो दूर; बल्कि नक्सलवाद फल-फूल ही रहा है व जनता का मुक्ति युद्ध बनता चला जा रहा है। केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री आर0पी0एन0 सिंह का यह कथन बिल्कुल ही असंतुलित व एकतरफा है कि नक्सलियों के प्रति हिंसा का नागरिक संगठन व मानवाधिकारवादी कटु निन्दा करें......... पर राज्य व सरकारों, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के कुकृत्यों से आंखे मूँद लें। जहां तक नक्सलवाद के उन्मूलन में सेना की भागीदारी व भूमिका का प्रश्न है तो वह सलाहकार, बचाव व रेस्क्यू के तौर पर तो है ही। जिसे आप अप्रत्यक्ष सहयोग कह सकते हैं। पर जहां तक सीधी कार्यवाहियों का सवाल है; आपको यह नहीं विस्मृत करना चाहिये कि सेना दो धारी तलवार है। अर्थात् लेने के देने भी पड़ सकते हैं...... और आगे यह भी कि सेना और नक्सली दोनों ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये हैं। एक बार सेना आती है; तो फिर जाती नहीं है और ऐसा भी नहीं कि आपने सेना लगाया ही नहीं है.... काश्मीर, नागालैण्ड, मणिपुर और उत्तर पूर्व के दूसरे राज्यों में नृजातीय और आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए चल रहे विद्रोहों में आखिरकार सेना कितनी कारगर साबित हुई है? इसका जवाब तो आपको देना ही होगा। और सवाल यह भी कि माक्र्सवाद, लेनिनवाद व माओवाद की राजनीति व भाषा में बदला लेने सरीखे शब्द नहीं होते। अपितु इसकी जगह वर्ग संघर्ष होता है। बदला लेना सामन्ती व बुर्जुआ शब्दावली है। सचमुच अगर कोई लेखक कांग्रेस के काफिले पर हमले को बदले व प्रतिशोध की कार्यवाही मानता है; तो फिर यह तो उसके बुर्जुआ व सामंती सोच को ही दर्शाता है तथा वह स्वयं को माक्र्सवादी विश्लेषक कहने का कतई हकदार नहीं है। कम्युनिस्ट कभी सैन्यवादी नहीं होते; वे तो क्रान्तिवादी होते हैं। अगर क्रान्तिकारी एक्शन भी किसी लेखक को सैन्यवाद नजर आने लगे; तो फिर उसे अपने को कोमिंतांग की पंक्ति में खड़ा कर लेना चाहिए बजाय माक्र्सवादी चिंतक व विश्लेषक बनने के। अगर सचमुच लातिन अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया में शासक वर्गों के तीखे हमलों के कारण माओवादी पार्टियों व आंदोलनों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और वे ढलान पर है; तो क्या मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टिंयाँ जिन्हें जनता की मुक्ति सेना पर भरोसा नहीं है, क्या चढ़ान पर हैं? अगर जनसेना का प्रतिकार आत्मघाती है तो फिर चुनावी चटनी व चाटुकारिता क्या क्रान्तिकारी पहलकदमी है? कौन किसके ट्रैप में फंसा है, यह तो समय ही बतायेगा? पर क्रान्तिकारी पहल पर घडि़याली आँसू बहाना.... दक्षिणपंती बचकानापन का मर्ज ही कहा जायेगा। अपनी मृत्यु से पहले एक साक्षात्कार में स्वयं महेन्द्र कर्मा ने कहा था- ‘‘माओवादियों के बुलेट का जवाब हमारे पास है, पर उनकी विचारधारा का जवाब हमारे पास नहीं है।’’ सवाल पैदा होता है कि विचारधारा के फ्रन्ट पर आप कहां खड़े हैं? आपने इस फ्रन्ट पर अपना मैदान बिल्कुल खाली छोड़ दिया है। पिछले दिनों एक बयान में सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने ठीक ही कहा था कि अगर छत्तीसगढ़ जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों में नक्सली नहीं होते तो देशी-विदेशी कम्पनियाँ कब का सारा कच्चा माल वहाँ से लूट ले गई होतीं।

दरअसल यह दो राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच आर-पार का युद्ध है। एक इसे इसी रूप में बचाना चाहता है; तो दूसरा बदलना चाहता है। यानी पूंजीवादी सामंती, साम्राज्यवादी व नवजनवादी, समाजवादी व साम्यवादी के बीच की रस्साकशी..... इसे अच्छा अथवा बुरा आप नहीं कह सकते एक को बहादुर और दूसरे को कायर बताना भी सही नहीं है। हिंसा और अहिंसा का भी प्रश्न पैदा नहीं होता; क्योंकि जब व्यवस्थायें बदलती हैं; तो हिंसा होती ही है। इसीलिए किसी को मर्मर और किसी को बर्बर भी आप नहीं कह सकते। यह दो दर्शनों, दो विचारों का युद्ध है। एक व्यवस्था जो पूंजीपति और कारपोरेटों की है; तो दूसरी गरीब, किसानों, मेहनतकश मजदूरों की..... यह जंग जारी है। यह जग जारी रहेगी जब तक एक पराजित न हो जाय। मेहनतकश और मजदूर जानना चाहते हैं कि तुम कौन होते हो  हमें रोजगार देने वाले? तुम्हारी इतनी हिम्मत की तुम हमें संसाधन मानने लगो। क्या हम तुम्हारे दास हंै? इस तरह से यह जंग कभी समाप्त नहीं होगी। जब तक व्यवस्था पूरी तरह बदल न जाये और बातचीत का भी प्रश्न पैदा नहीं होता। कांग्रेसी काफिले पर हमला तो सिम्बोलिक व प्रतीकात्मक है..... न कि प्रतिशोधात्मक। क्योंकि माक्र्सवाद में बदला लेने जैसी चीज नहीं होती। लक्ष्य आमूल चूल परिवर्तन होता है। इस संदर्भ में यह शेर बेहद मौजूं है।

"माओवाद फूल है या कांटा है 

कहीं जश्न है; तो कहीं सन्नाटा है।"


                                 :- कवि आत्मा  ,
7505586748

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