रविवार, 23 जून 2013

मोदी

भाजपा के उपर आर एस एस है 
ब्राम्हण वाद का घर है !
मुसलमानों  का दुश्मन 
साम्प्रदायिकता  की जड़ 
भागवत बाचे भागवत गीता 
सौहार्द  में लावे पलीता !
काली टोपी चौबीस घंटा 
खाकी पेंट हाथ में डंडा !
राष्ट्रीयता की करे बात 
देश  में फैलाये जात-पात !
हिन्दू - मुस्लिम को लडावे 
चुनावी  दंगा फैलावे !
मोदी  का ताना - बाना 
लड़े हिन्दू - मुसलमाना!
राजनाथ भयो नागनाथा 
खड़ा हुआ मोदी के साथा !
मोदी महा अमंगलकारी 
सकुनी  महाभारत का सूत्रधारी !
भाजपा को पहुचाया टूट कगारा 
गया कर्नाटक गया बिहारा !
मोदी बना भाष्मासुरा 
अडवाणी का बाह मरोणा!
खुल्लम खुल्ला बोला कुल कर्णी 
राजनाथ है धूर्त लोमड़ी !
सबने मिलकर चुप्पी साधा 
मोदी सबसे बड़ा बाधा !
नास्तिक ब्राम्हण मोदी गुण गावै 
भाजपा को रसातल पहुचावै !
नीतीश मोदी दुत्कारा 
साम्प्रदायिकता से बचा बिहारा !
अभिमानी मोदी अहंकारी 
सबके ऊपर आँख तरेरी !
सुशिल मोदी त्यागपत्र दीन्हा
बिहार राज्य अमंगल चिन्हां !
ग्यारह  मंत्री पद गवाया 
भाजपा पर आफत आया !
कम्युनिस्ट - कांग्रेस सब हर्षाई 
तीसरे मोर्चे में जन आई !
मोदी पूंजीपतियों का टट्टू
कारपोरेटो  का है पिट्ठू !
कांग्रेस -भाजपा के बिच नहीं है कोई फर्क 
अमीरों का स्वर्ग है ग़रीबों का नर्क !
कोई गटबंधन बने कोई बने परधान 
बिन क्रांति न उबरे पूंजीवादी हिंदुस्तान !
२० १ ७ के क्रांति के करो तैयारी 
सुबह होए भागे अंधियारी !
     :- क० आ०
 

शनिवार, 22 जून 2013

माओवादी हमला या व्यवस्था बदलाव के लिए जनयुद्ध:

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      सच पूछिये तो यह साम्राज्यवादी, सामंतवादी, पूंजीवादी व्यवस्था व मूल्यों पर हमला है, न लोकतंत्र व लोकतांत्रिक मूल्यों पर.......... कोई चुनाव लड़ने अथवा जीत जाने से लोकतंात्रिक नहीं बन जाता। दरअसल उसके द्वारा किये हुए कार्यों से ही पता चलता है कि सचमुच वह कितना  लोकतांत्रिक अथवा फासीवादी है, चुनाव लोकतंत्र की कसौटी नहीं हो सकता। लोकतंत्र के नाम पर काॅरपोरेट तंत्र के लिए काम करने वालों को भला लोकतांत्रिक अथवा जनतांत्रिक या फिर लोकतांत्रिक व जनतांत्रिक मूल्यों का हिमायती कैसे कहा जा सकता है? सही में यह विचार करने का समय आ गया है कि माओवादियों का यह हमला, लोकतंत्र पर हमला है या फिर चुनावों द्वारा पैदा जांेकतंत्र व करप्ट तंत्र पर है..... लोकतंत्र अगर स्वयं को लूटतंत्र में बदल दे, तो क्या सचमुच वह लोकतंत्र बन जायेगा?

अब जनता व अवाम यह भलीभांति समझने लगी है कि चुनाव का सीधा सादा अर्थ है पूंजीपतियों का चुनाव। आज हमारी लोक सभा, विधानसभायें व राज्य सभा करोड़पतियों के हाथ गिरवी है। क्या पूंजीपतियों का यह लोकसभा व विधानसभाओं पर राजनीतिक कब्जा लोकतंत्र है? इसीलिए माओवादियों का यह हमला उस चुनावी राजनीतिक व्यवस्था पर है; जो काॅरपोरेट तंत्र व भ्रष्टतंत्र को विधानसभाओं, लोकसभाओं व राज्य सभाओं पर राजनीतिक कब्जा दिलाने का काम करता है; और उन्हीं लोगों के खिलाफ कानून बनाने का काम करता है, जो मतदान कर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। इससे बड़ा विश्वासघात अपनी जनता व अवाम के साथ भला और क्या हो सकता है? अगर सचमुच यही जनतांत्रिक व लोकतांत्रिक मूल्य हंै, तो फिर ये कारपोरेट घराना व पूंजीपतियों के लिए अमूल्य व बहुमूल्य तो हो सकते हैं, पर जनता के लिए कौड़ी काम का नहीं। यह माओवादी हमला इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जन और जनतंत्र के बीच गहरी व चैड़ी खाई पैदा हो चुकी है। अगर अवाम अपने जन प्रतिनिधियों की जान का गहक बन जाये; तो समझना चाहिए कि यह आक्रमण नहीं, जनाक्रोश है.... तथाकथित जनतंत्र जनाक्रोश की चपेट में है। इसे आप आतंकवाद कहें, नक्सलवाद कहें अथवा माओवाद कहें....... दरअसल यह हमला लोकतांत्रिक मूल्यों पर नहीं, छद्म लोकतांत्रिक मूल्यों पर है, जिसे आपने नव आर्थिक उदारवाद के नाम पर गढ़ा है। सवाल यह भी पैदा होता है कि कौन भटकाव में हंै? आप भटकाव में हैं या फिर माओवादी भटकाव में हैं। लोकतांत्रिक वैल्यूज का उन्मूलन, ह्रास व पतन किसके द्वारा किया जा रहा है? आपके द्वारा या माओवादियों के द्वारा।

यह माओवादी हमला उस अति औद्योगीकरण व कारपोरेटीकरण के खिलाफ है; जो जंगल, समतल (गावों) व शहरों को निगलने की तैयारी में है। डेवलपमेंट व विकास जिसका स्लोगन है.... जिसने जीडीपी और पीपीपी को अपना प्रतिमान बना रखा है। जिसके तहत मुट्ठीभर नव अभिजात व कुलकों के विकास को सारे देश व राष्ट्र का विकास बताया जा रहा है, जिसका नतीजा है; आम जनता का विस्थापन व प्राकृतिक सम्पदा तथा स्रोतों पर काॅरपोरेट व पूंजीपति घरानों का कब्जा..... जिसे हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर देश के नौजवानों को बेरोजगार बनाया जा रहा है। नौनिहालों को कुपोषण के नरक में धकेला जा रहा है। और महिलाओं का रक्त चूसा जा रहा है। यह है कारपोरेट विकास का माॅडल, यानी चंद लोगों के गाल पर लाली है; जिसके एवज में हर तीसरे भारतीय का पेट खाली है....... थू थू ऐसे विकास को, तोबा ऐसे विकास को। यह उस बड़बोलेपन पर भी हमला है; जो कह रहा था कि माओवाद का दो तीन सालों के भीतर उन्मूलन कर दिया जायेगा। माओवादियों की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है। उनकी कमर टूट चुकी है...... क्योंकि उनके तमाम बड़े लीडरों की या तो हत्या की जा चुकी है अथवा फिर वे जेलों में बंद हैं। माओवादियों को नेतृत्व विहीन करने की साजिश कांग्रेस अथवा भाजपा पर भी तो लागू होती है। यानी लक्ष्य एक दूसरे केा नेतृत्व विहीन करना है। आखिर यह लोकतंत्र है या कत्लतंत्र? दरमा घाटी के दर्दनाक मंजर को इसी संदर्भ में लिये जाने की जरूरत है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 16 हजार माओवादी पूरे भारत में जेलों में बंद हैं...... और इतने ही मारे जा चुके हैं। नेतृत्व विहीनता अन्ततः अराजकता को ही जन्म देती है। इस तरह उन लोगों के लिए जो यह कहते हुए अपने बड़बोलेपन का प्रदर्शन कर रहे थे कि दो साल के भीतर माओवादी नेता किशनजी पश्चिम बंगाल, 24 नवम्बर 2011 को...... ललेश उर्फ प्रशान्त जोनल कमांडर झारखंड राज्य के चतरा जिला के कुन्दा थाना अंतर्गत लकड़मंदा खुसेला गांव व सुधाकर रेड्डी दंडकारण्य में मार गिराये जाने से नक्सलियों की नींव हिल चुकी है, के लिए सख्त चेतावनी है कि माओवादियें को कमकर के न आंका जाय। बुर्जुवा कलम घिस्सुओं के लिए यह एक सबक भी हैै। जैसा कि माओवाद कोई आतंकवादी संगठन नही है, जो भीड़ भरे बाजार, मंदिर, मस्जिद, सिनेमाघर, कोर्ट कचहरी व खेल के मैदानों में बम विस्फोट कर दहशतगर्दी के साथ जान माल की हानि पहुंचाता हो। अपितु यह एक जन संघर्ष व जन विद्रोह है। सशस्त्र क्रांतिकारी संगठन है.... जिसका राजनीतिक उद्देश्य है; पूंजीवादी जनतंत्र की जगह मेहनतकश जनता का नव जनतंत्र प्रस्थापित करना....... जो आहिस्ते-आहिस्ते कामयाबी की तरफ अग्रसर भी है। जहां तक बदला लेने का सवाल है 27 मार्च की रात से लेकर 28 मार्च की सुबह तक चले लकड़मंदा वाली घटना में बेशक माओवादियों का बड़ा नुकसान हुआ। इस मुठभेड़ में माकपा माओवादी की बिहार झारखंड विशेष क्षेत्रीय समिति के तेज तर्रार सदस्य लवलेश सिंह, बिहार झारखंड समिति के प्लाटून कमांडर जयकुमार यादव, जोनल कमांडर धर्मेन्द्र यादव, कोयल शंख जोन के कमांडर प्रफुल्ल यादव इत्यादि माओवादी लड़ाकों के मारे जाने से झारखंड के पुलिस महानिदेशक का खुश होना स्वाभाविक है; पर इससे पुलिस का मनोबल कैसे बढ़ा? क्या टीपीसी द्वारा माओवादियों की हत्या को वे अपनी सफलता मानते हैं? इसलिए कि माओवादियों को नुकसान पहुंचा रहे ऐसे संगठनो को पुलिस का परोक्ष समर्थन प्राप्त है...... क्योंकि स्थानीय चश्मदीदों का कहना था कि कोबरा फोर्स तड़के चार बजे लकड़मांदा पहुंची...... उन्होंने टीपीसी पर बिल्कुल ही गोलियां नहीं चलाई; बल्कि उन्हें पकड़े गये माओवादियों को अपने साथ ले जाने दिया। इससे झारखंड पुलिस और टीपीसी के बीच की मिली भगत का अनायास ही खुलासा हो जाता है। बेशक सीपीआई माओवादियों ने भी अतीत में टीपीसी के कई बड़े नेताओं की हत्या की है। टीपीसी और सलवाजुडुम के बीच कोई खास अंतर नहीं है; जिसे 5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध और असंवैधानिक करार दिया है। बावजूद इसके टीपीसी का माओवादियांें के खिलाफ इस्तेमाल क्या संवैधानिक है?

इस संदर्भ में माओवादियों का कहना है कि वर्षों से आपसी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे माओवादियों और टीपीसी के बीच उस रात वार्ता की बात तय थी। टीपीसी ने धोखा दिया। टीपीसी ने पहले से ही इलाके की घेरा बंदी कर रखी थी...... और इसके समानान्तर पुलिस वालों की भी घेरा बंदी थी। इस दायरे में आते ही माओवादियों के बड़े लड़ाके आसानी से घेरकर मार दिये गये। उनके हथियार लूट लिये गये तथा टीपीसी वाले दो दर्जन माओवादियों को बंधक बनाकर ले जाने में सफल रहे। यह है लोहा से लोहा काटने की नीति; जिसके परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं।

माओवादियों ने एक से सात अप्रैल तक प्रतिरोध सप्ताह मनाया व  बिहार झारखंड बंद का एलान किया। चार अप्रैल को झारखंड के गुमला जिले में अंधाधंुंध फायरिंग करते हुए माओवादियों ने पुलिस के पांच जवानों की हत्या कर दी और उनकी राइफलें लेकर भाग गये। छः और सात अप्रैल को बंद के दरम्यान; गया जिला मुख्यालय से 100 किमी0 दूर डुमरिया में माओवादियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंग से सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के चार जवान घायल हो गये। मुजफ्फरपुर में दो बसों और एक ट्रक को जला दिया गया। साथ ही साथ माओवादियों ने पोस्टर चिपकाया कि लकड़मंदा के वीर शहीदों का बदला लेंगे.....

2004 में पीपुल्स वार गु्रप, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर आफ इण्उिया सहित 28 संगठनों के विलय से बने माकपा (माओवादी) से पहले ही से एक अलग संगठन के रूप में उभरे टीसीपी का पुलिस से परोक्ष रिश्ता है....... जो लोहे से लोहा काटने की तर्ज पर उसका इस्तेमाल करती है। माओवादियों का कहना है कि टीसीपी पुलिस समर्थित सेना है। कुछ कुछ सलवा जुडूम की तरह....... चतरा और हजारीबाग जिले मे ंपूरी तरह से कब्जा जमा चुके; टीपीसी का गठन 1998 में एक बड़े पुलिस अधिकारी के इशारे पर हुआ था। उसे मिल रहे पुलिस संरक्षण के प्रमाण कई अवसरों पर एम0सी0सी0 के कैडरों ने दिये हैं। 1998 में एमसीसी का एरिया कमांडर ब्रजेश गंझू पीडब्लूजी और एमसीसी के विलय से नाराज चल रहा था। उसने अपने कई साथियों के साथ आत्मसमर्पण की तैयारी कर ली..... इसके लिए उसने झारखंड पुलिस के एक बड़े अधिकारी से सम्पर्क किया। पुलिस अधिकारी के इशारे पर उसने आत्मसमर्पण करने के बजाय टीपीसी का गठन किया। जिसे उसी पुलिस अधिकारी ने भारी संख्या में हथियार उपलब्ध कराये। एमसीसी के लगभग 150 कैडट टीपीसी में शामिल हो गये। पुलिस की बढ़ती शह के कारण टीपीसी ताकवर होने लगी। आरोप तो यहां तक है कि पुलिस संगठनों को टीपीसी द्वारा लेवी का एक बड़ा हिस्सा पहुंचाया जाता है। टीपीसी की तुलना सलवा जुडुम अथवा ग्रीन हंट से की जाती है। इस प्रकार ये दोनों सशस्त्र हथियार बंद दस्ते क्रमशः झारखंड व छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा माओवादियों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए खड़े किये गये थे। सलवा जुड़ुम को न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित किया बल्कि इनके हथियार वापस लेने के भी आदेश दिये। यही नहीं माओवादियों ने इसके कई कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया। कई लोगों का कहना है कि 18 मई को हुई तथाकथित मुठभेड़ में 8 निर्दोष आदिवासी ग्रामीण मारे गये थे। एड्समेटा मुठभेड़ का बदला है यह हमला।

माओवादी टीपीसी से भी बदला लेते हैं। यह बात और है कि टीपीसी धोखे की वजह से हमलावर हुई; पर माओवादी निश्चित ही उनसे इसका बदला लेंगे। इसीलिए लकड़मंदा के इर्द-गिर्द का क्षेत्र सहमा हुआ है। पता नहीं कब कोई अनहोनी घट जाये........

जहां तक छत्तीसगढ़ दरमा घाटी में माओवादियों द्वारा कांग्रेस के परिवर्तन रैली पर आक्रमण का सवाल है...... सामरिक विश्लेषकों के अनुसार माओवादी हमला अब तीसरे चरण में प्रवेश कर चुका है। जो बीते दो चरणों के मुकाबले ज्यादा नुकसानदेह व घातक है। अपने पहले चरण में नक्सली भूस्वामियों और धनस्वामियों को निशाना बनाते थे। वह प्रारम्भिक शुरूआती दौर था। तब नक्सलवाद व्यवस्था के विद्रोह में एक बुद्धिजीवी आन्दोलन के तौर पर देखा जाता था। पश्चिम बंगाल में इस आन्दोलन को व्यापक समर्थन व विस्तार मिला।

दूसरे चरण में नक्सलियों ने सशस्त्र बलों पर हमले शुरू किये। इस चरण में नक्सली आन्दोलन का सीमा विस्तार अधिक हुआ। पूरे भारत में एक लाल गलियारे का निर्माण होने लगा; जो पश्चिम बंगाल से बाहर बिहार, झारखंड, ओडीशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तक आकर ग्रहण कर चुका है। यह नक्सलवाद के लिए संक्रमणकाल था; क्योंकि इस दरम्यान सरकारों ने भी इनके प्रति सहानुभूति का चोला उतार कर; सशस्त्र बलों को इनसे लोहा लेने के लिए जंगलों में भेजा। चूंकि नक्सली गुरिल्ले न सिर्फ युद्ध में माहिर थे; बल्कि इन्हें जंगल के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी। इसीलिए छत्तीसगढ़, झारखंड व ओडीशा के जंगलोें में वे घात लगाकर सशस्त्र बलों को निशाना बनाने लगे।

बीते 25 मई को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के जंगल में कांग्रेस पार्टी के काफिले पर माओवादी हमला बताता है कि अब माओवादियो की लड़ाई तीसरे चरण में पहुंच गई है। बड़ी तादाद में एकजुट होकर एक बड़ी सियासी पार्टी की रैली से लौट रहे नेताओं पर हमले का यह पहला मामला है। इससे पहले जो नेता नक्सली हिंसा की चपेट में आये वे या तो अकेले होते थे या फिर अपने अंगरक्षकों के साथ....... पर यह पहली बार देखा गया कि कई बड़े नेताओं पर एक साथ हमला हुआ। जाहिर है अब नक्सलियों के निशाने पर नीति नियंत, राजनीतिक नेतृत्व व राजनीतिक पार्टियां है। ऐसे हालात में यह राजनीतिक वक्तव्य देना कि नक्सलवाद कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है; बल्कि विकास से जुड़ी है.. एकदम गलत है। दरअसल यह आमूल चूल व्यवस्था परिवर्तन का युद्ध है। जिसमें एक तरफ मेहनतकश, मजदूर, दलित आदिवासी गरीब ग्रामीण जनता है, तो दूसरी तरफ अमीर पूंजीपति कारपोरेट घराने व उनके हितों को संरक्षण प्रदान करने वाली राजनीतिक पार्टियां व सियासी नेता हैं।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं के साथ खून की होली खेलने के चार दिन बाद 28 मई को प्रतिबन्धित नक्सली संगठन सीपीआई (माओवादी) ने हमले की जिम्मेदारी ली है। माओवादियों ने कहा है कि उनका मकसद सिर्फ महेन्द्र वर्मा, नंदकुमार पटेल और कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं की हत्या करना था-सीपीआई (माओवादी) की दंडकारण्य विशेष क्षेत्रीय समिति के प्रवक्ता गुडसा उसेन्दी ने एक बयान जारी कर कहा है कि इसके अलावा हमले में जो निर्दोष मारे गये हैं; उनके परिवार के प्रति हम संवेदना प्रकट करते हैं। उसेन्दी ने सलवा जुडूम के संस्थापक महेन्द्र कर्मा और नन्द कुमार पटेल पर आरोप लगाया कि वे आम लोगों के खिलाफ नीतियों को बढ़ावा दे रहे थे। वी0सी0 शुक्ला के लिए कहा गया है कि वे राज्य में उद्योगपतियों को गलत तरीका से लाभ पहुँचा रहे थे।

उसेंदी ने कर्मा की हत्या को जायज ठहराते हुए कहा है कि वह मांझी जाति से तालुक रखते थे। जो आदिवासियों पर जुल्म ढाती है। बयान के मुताबिक भाजपा और कांग्रेस नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम आन्दोलन चला रहे थे। नेताओं की हत्या कर हमने उन लोगों का बदला लिया है। गृहमंत्री नंदकुमार पटेल के कार्यकाल में छत्तीसगए़ में अर्द्धसैनिक बलो की तैनाती हुई थी। माओवादियों की प्रमुख मांगे हैं- आॅपरेशन ग्रीन हंट तुरंत बन्द हो। सुरक्षा बल वापस भेज दिये जाये। बस्तर में सेना की तैनाती न हो। जेलों मंें बंद नक्सली नेता रिहा हो। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोके।

प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने कहा है कि- ‘‘राष्ट्र नक्सलवाद के आगे नहीं झुकेगा...... देश न तो नक्सलियों के ऐसे हमलांें से आतंकित होगा और न ही इस तरह के कृत्यों से डरेगा। छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर नक्सलियों की हिंसा से राष्ट्र बेहद निराश और स्तब्ध है। लोकतांत्रिक राजनीतिक में हिंसा की कोई जगह नहीं है। बेचारे गृहमंत्री शिंदे आंख के इलाज के लिए अमेरिका गए हुए थे। इस बीच नक्सलियों ने हैवानियत भरा हमला कर दिया। गृहमंत्री जी से काश कोई पूछने वाला होता कि कांग्रेसी काफिले पर हमले से ठीक आठ दिन पहले 17 मई को सीआरपीएफ के जवानों ने एडसमेटा गांव में तथाकथित मुठभेड़ में आठ आदिवासियों सहित तीन बच्चों की हत्या की थी। क्या यह हमला इंसानियत भरा था या हैवानियत भरा ही था? यहां दरअसल गांव के आदिवासी स्थानीय त्योहार ‘‘बीजपंडुम’’ मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। धान की रोपाई से पहले बीजों की पूजा करने के लिए यह त्योहार मानाया जाता है। गांव वालों के मुताबिक पूजा के बीच में ही अचानक उनपर गोलियां चलने लगी। इसमें तीन बच्चों सहित आठ निर्दोष लोगों की मौत हो गई। छत्तीसगढ़ में यह कोई पहली घटना नहीं है; जब सुरक्षाबलों के मुठभेड़ पर सवाल उठाये गये। 2005 से लेकर अब तक राज्य में ऐसी 244 घटनायें घट चुकी हैं। 8 जनवरी 2009 को भी एसपीओ और जिला पुलिस के जवानों ने एक भिड़न्त में 15 नक्सलियों को मार गिराने का दावा किया था। मुठभेड़ के बाद प्रशासन की ओर से बहुत प्रचारित किया गया था कि नक्सलवाद का खात्मा करने के लिए पुलिस का मनेाबल बेहद ऊँचा है। पर जब सामाजिक संगठनों और आन्ध्र प्रदेश के मीडियाकर्मियों ने मामले की पड़ताल की तो पता चला कि पुलिस ने नक्सलियों को पनाह देने के आरोप में ग्रामीणों को एक कतार में खड़ा करके न सिर्फ गोलियों से भून दिया था; बल्कि नरसंहार को जायज ठहराने के लिए उन्हें वर्दी पहनाकर नक्सलवादी प्रमाणित करने का उपक्रम भी रचा था। यह कृत्य कायराना था बहादुराना इसका भी जवाब जनता के दरबार में एक न एक दिन देना ही पड़ेगा। यही वजह है कि यूपीए सरकार द्वारा हजारों करोड़ रूपये फूूंकने के बावजूद नक्सलवाद का खात्मा होना तो दूर; बल्कि नक्सलवाद फल-फूल ही रहा है व जनता का मुक्ति युद्ध बनता चला जा रहा है। केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री आर0पी0एन0 सिंह का यह कथन बिल्कुल ही असंतुलित व एकतरफा है कि नक्सलियों के प्रति हिंसा का नागरिक संगठन व मानवाधिकारवादी कटु निन्दा करें......... पर राज्य व सरकारों, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के कुकृत्यों से आंखे मूँद लें। जहां तक नक्सलवाद के उन्मूलन में सेना की भागीदारी व भूमिका का प्रश्न है तो वह सलाहकार, बचाव व रेस्क्यू के तौर पर तो है ही। जिसे आप अप्रत्यक्ष सहयोग कह सकते हैं। पर जहां तक सीधी कार्यवाहियों का सवाल है; आपको यह नहीं विस्मृत करना चाहिये कि सेना दो धारी तलवार है। अर्थात् लेने के देने भी पड़ सकते हैं...... और आगे यह भी कि सेना और नक्सली दोनों ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये हैं। एक बार सेना आती है; तो फिर जाती नहीं है और ऐसा भी नहीं कि आपने सेना लगाया ही नहीं है.... काश्मीर, नागालैण्ड, मणिपुर और उत्तर पूर्व के दूसरे राज्यों में नृजातीय और आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए चल रहे विद्रोहों में आखिरकार सेना कितनी कारगर साबित हुई है? इसका जवाब तो आपको देना ही होगा। और सवाल यह भी कि माक्र्सवाद, लेनिनवाद व माओवाद की राजनीति व भाषा में बदला लेने सरीखे शब्द नहीं होते। अपितु इसकी जगह वर्ग संघर्ष होता है। बदला लेना सामन्ती व बुर्जुआ शब्दावली है। सचमुच अगर कोई लेखक कांग्रेस के काफिले पर हमले को बदले व प्रतिशोध की कार्यवाही मानता है; तो फिर यह तो उसके बुर्जुआ व सामंती सोच को ही दर्शाता है तथा वह स्वयं को माक्र्सवादी विश्लेषक कहने का कतई हकदार नहीं है। कम्युनिस्ट कभी सैन्यवादी नहीं होते; वे तो क्रान्तिवादी होते हैं। अगर क्रान्तिकारी एक्शन भी किसी लेखक को सैन्यवाद नजर आने लगे; तो फिर उसे अपने को कोमिंतांग की पंक्ति में खड़ा कर लेना चाहिए बजाय माक्र्सवादी चिंतक व विश्लेषक बनने के। अगर सचमुच लातिन अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया में शासक वर्गों के तीखे हमलों के कारण माओवादी पार्टियों व आंदोलनों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और वे ढलान पर है; तो क्या मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टिंयाँ जिन्हें जनता की मुक्ति सेना पर भरोसा नहीं है, क्या चढ़ान पर हैं? अगर जनसेना का प्रतिकार आत्मघाती है तो फिर चुनावी चटनी व चाटुकारिता क्या क्रान्तिकारी पहलकदमी है? कौन किसके ट्रैप में फंसा है, यह तो समय ही बतायेगा? पर क्रान्तिकारी पहल पर घडि़याली आँसू बहाना.... दक्षिणपंती बचकानापन का मर्ज ही कहा जायेगा। अपनी मृत्यु से पहले एक साक्षात्कार में स्वयं महेन्द्र कर्मा ने कहा था- ‘‘माओवादियों के बुलेट का जवाब हमारे पास है, पर उनकी विचारधारा का जवाब हमारे पास नहीं है।’’ सवाल पैदा होता है कि विचारधारा के फ्रन्ट पर आप कहां खड़े हैं? आपने इस फ्रन्ट पर अपना मैदान बिल्कुल खाली छोड़ दिया है। पिछले दिनों एक बयान में सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने ठीक ही कहा था कि अगर छत्तीसगढ़ जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों में नक्सली नहीं होते तो देशी-विदेशी कम्पनियाँ कब का सारा कच्चा माल वहाँ से लूट ले गई होतीं।

दरअसल यह दो राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच आर-पार का युद्ध है। एक इसे इसी रूप में बचाना चाहता है; तो दूसरा बदलना चाहता है। यानी पूंजीवादी सामंती, साम्राज्यवादी व नवजनवादी, समाजवादी व साम्यवादी के बीच की रस्साकशी..... इसे अच्छा अथवा बुरा आप नहीं कह सकते एक को बहादुर और दूसरे को कायर बताना भी सही नहीं है। हिंसा और अहिंसा का भी प्रश्न पैदा नहीं होता; क्योंकि जब व्यवस्थायें बदलती हैं; तो हिंसा होती ही है। इसीलिए किसी को मर्मर और किसी को बर्बर भी आप नहीं कह सकते। यह दो दर्शनों, दो विचारों का युद्ध है। एक व्यवस्था जो पूंजीपति और कारपोरेटों की है; तो दूसरी गरीब, किसानों, मेहनतकश मजदूरों की..... यह जंग जारी है। यह जग जारी रहेगी जब तक एक पराजित न हो जाय। मेहनतकश और मजदूर जानना चाहते हैं कि तुम कौन होते हो  हमें रोजगार देने वाले? तुम्हारी इतनी हिम्मत की तुम हमें संसाधन मानने लगो। क्या हम तुम्हारे दास हंै? इस तरह से यह जंग कभी समाप्त नहीं होगी। जब तक व्यवस्था पूरी तरह बदल न जाये और बातचीत का भी प्रश्न पैदा नहीं होता। कांग्रेसी काफिले पर हमला तो सिम्बोलिक व प्रतीकात्मक है..... न कि प्रतिशोधात्मक। क्योंकि माक्र्सवाद में बदला लेने जैसी चीज नहीं होती। लक्ष्य आमूल चूल परिवर्तन होता है। इस संदर्भ में यह शेर बेहद मौजूं है।

"माओवाद फूल है या कांटा है 

कहीं जश्न है; तो कहीं सन्नाटा है।"


                                 :- कवि आत्मा  ,
7505586748

मंगलवार, 19 मार्च 2013

Break marrige be socilist


Break marrige be socilist

भारत मे एक सामाजिक क्रांति होने जा रही है क्या उसे आप देख पा रहे है ?


 विवाह एक अप्राकृतिक है प्रेंम प्राकृतिक 

विवाह नारी के निजीकरण की प्रक्रिया है प्रेंम समाजीकरण की 

शादी महिला और पुरुष दोनों को गुलाम बनाती है 

प्रेंम झरना है, रोमांस नदी  , और शादी कुआ

महिला मुक्ति का मार्ग ,पति नहीं पिता के घर से प्रारम्भ होता है 


नारी अगर शादी करती है तो एक शिशु को जन्म देती है और शादी नहीं करती तो समाजवाद को 

महिला मुक्ति तब तक संभव नहीं है  जब तक महिला और पुरुष का स्वतंत्र इकाई के रूप मे अलग अलग विकास  ना हों ...........




विवाह संस्था माथे के बल खड़ी है इसे  पाव के बल खड़ा कर दो ....प्रेंम शादी विरोधी पहलकदमी है 
विवाह संस्था पतन शील व मरणशील है ...यह अगले पचास वर्षों मे समाप्त हों जायेगी.....
विवाह संस्था पांच टुकडो मे टूट चुकी है

  1. विलम्ब शादी 
  2. तालाख
  3. लिव इन रिलेशनशीप
  4. मात्र २० रूपए कमाने वालो ८० करोड़ लोगो  को कौन अपनी बेटी देना चहेगा ......,?
एक निष्ठता जो आदर्श के रूप मे लिया जा रहा है समाज से आहिस्ते आहिस्ते गायब होती चली जा रही है

 इस प्रकार विवाह संस्था का भविष्य अंधकार मय है और अगले पचास वर्षों मे पूरी तरह से समाप्त हों जाये गी  हमें यह नहीं भूलना चाहिए की विवाह संस्था सामंतवाद का आधारऔर प्राण है और चुनाव पूँजीवाद का इन दोनों संस्थाओ को हम जितना जल्दी तोड़ कर फेक देंगे उताना ही जल्दी समाजवादी समाज जन्म लेगा , इस तरह विवाह करना समाज के साथ चोरी है ...पाप है शादियों से ही रिश्ते है शादियों के टूटने से रिश्ते अपने आप 
समाप्त हों जायेगे . भाई भतीजा वाद भी खत्म हों जाये गा तथा जाती पाती भी  , यह एक सामाजिक क्रांति होगी जो अंततः समाजवाद को जन्म देगा ,,,,,
इसी लिए आज का स्लोग़न है.  

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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

 अमेरिकी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !                                                              नव-जनवादी क्रांति जिंदाबाद !

दरअसल दो दिवसीय देशव्यापी सर्वहारा ,मेहनतकस मजदूरों की हड़ताल ने देशी - विदेशी कारपोरेटो व् पूंजीपतियों के कान खड़े कर दिए उन्हें यह भय व् चिंता सताने लगी है की कही यह देशव्यापी सर्वहाराओ की हड़ताल लाल भारत के निर्माण की दिशा में जोरदार पहलकदमी तो नहीं। 
         
     दूसरी तरफ क्यों न २ ० १ ४ के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर साम्प्रदायिकता को हवा दे मतों का केन्द्रीयकरण किया जाए। जिससे साम्राज्यवाद को जमीन हाशिल हो। सच पूछिये तो हैदराबाद सेल बम्ब ब्लास्ट अमेरीकी साम्राज्यवाद व् उनके भारतीय दलालों की  काली करतूत है। 

जिस प्रकार से  अमेरीकी साम्राज्यवादीयों ने पाकिस्तान को सिया -सुन्नियों के बिच बाँट कर दहशत गर्दी फैला रक्खी है ठीक उसी तरह से भारत को हिन्दू -मुसलमनो के बीच बाँट कर सर्वहारा क्रांति को धुमील करना चाहते है। 
     
   इससे ताज्जुब की बात और क्या होगी की बम्ब ब्लास्ट के सबूतों को मिटाने में स्वं संलग्न है और मिडिया में भ्रमात्मक बयान दे रहे है की बम्ब ब्लास्ट के आधे अधूरे साबुत ही शेष बचे है और आधे सबूत समाप्त हो चुके है इससे उनकी मनसा का पुरी तरह से खुलासा हो जाता है।
        
 सभी क्रन्तिकारी साथियों  व् सच्चे देशभक्तों से यह अपील है  कि वे इस अमेरिकी साम्राज्यवादी चाल को विफल बनाए व् समाजवाद के निर्माण के चिंतन को और सु-अस्पष्ट दृष्टि  में रखते हुए पहलकदमी करे !

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

गांधीयन माओवाद यानी 2017 की क्रान्ति :

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  पूंजीवाद के बरक्स समाजवाद मात्र एक स्वप्न नहीं, बल्कि सच्चाई है जिसका अपना अतीत व भविष्य ही नहीं वर्तमान भी है। बेशक समाजवाद एक नये समाज की मांग करता है। कैसा होगा वह समाज; इसकी कल्पना कम सुखद नहीं.... इतना तो तय है कि समाजवादी समाज सामंती व पूंजीवादी समाज व मूल्यों से भिन्न होगा... जहां नारी व पुरूष पृथक-पृथक इकाई होंगे... समाजवादी समाज सामंती व पूंजीवादी विसंगतियों से भी मुक्त होगा... समाजवादी समाज में विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी होगी...गाँधी के बारे में अगर आपने लिखा है कि अपने आंदेलन का हिस्सा बनाओ;ं तो कोई भी नक्सलवादी नाराज नहीं होगा... क्योंकि वह इस रणनीति से वाकिफ है कि सड़कों पर गाँधीवादी बन के; और जंगल में माओवादी बनके काम करने में ही बुद्धिमŸाा है... भला इसमें नराजगी की कौन-सी बात है?...शायद आपको पता नहीं है, अब माओवादी भी गांधीयन माओवाद की बात करने लगे हंै। इससे आगे बढ़कर अम्बेडकर माओवाद और लोहिया माओवाद की भी.... अगर आप इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कम्युनिस्ट आंदोलन का कोई भविष्य है तो यह अल्ट्रा लेफ्ट में हैं; तो आपका विश्लेषण सटीक है।

सचमुच इस वक्त मुल्क में माओवादियों के लिए सहानुभूति बढ़ी है; और इस सहानुभूति को शासक वर्ग भी समझता है; उसकी नीति यह है कि चुन-चुन के बहुत अच्छे कैंडर है; उन्हें मार दें... यह एक तल्ख सच्चाई है कि माओवादियों की प्रथम पंक्ति के नेता या तो जेल में बंद है; अथवा मार दिये गये। मुठ्ठीभर जो जिंदे हैं; वे जंगलों में सिमटे हंै। शहरी और मैदानी इलाकों में दूसरी पंक्ति ने नेतृत्व सम्माल लिया है... तथा तीसरी पंक्ति प्रशिक्षण ले रही है अगर सर्वाधिक अमीर एक फीसदी वयस्क लोगों के पास 40 फीसदी वैश्विक सम्पदा है तथा सर्वाधिक 10 फीसदी अमीरों के पास 85 प्रतिशत वैश्विक सम्पदा... तो फिर यह आंख खोलने वाली है तथा अस्वीकार्य है...इससे यह प्रमाणित होता है कि अमीर-गरीब इंसान का बनाया हुआ है...ईश्वर द्वारा नहीं। इस विषमता को संघर्ष द्वारा बदला जा सकता है।

सच पूछिये तो माक्र्सवाद की प्रसांगिकता उसकी मौलिकता में है न कि उसके पुनर्रचना में... सवाल यह भी कि पूंजीवाद को कटघरे में न खड़ा किया जाय तो; क्या महिमा मंडित किया जाय? अगर माक्र्सवाद और समाजवाद रेतीले मचान पर खड़े हैं? तो क्या पूंजीवाद अपनी गर्दन तक दलदल में नहीं धंसा है? पूंजीवाद की विनाशकारी व संहारक क्षमता अर्श पर है; तो क्या इस भय से समाजवाद को विस्मृत कर दिया जाय... गला घांेट दिया जाय व उसका नाम तक न लिया जाय...पूंजीवाद आत्मरक्षा और दीर्घ जीवनावधि के लिए नये-नये शास्त्रों का निर्माण व इस्तेमाल करता है। वह परमाणु बमों का बिस्फोट व रासायनिक नाकाम बमों की वर्षा कर सकता हैं तो क्या उसकी पराधीनता व गुलामी को स्वीकार लिया जाय व समाजवाद तथा साम्राज्यवाद की चाकरी की जाय समाजवाद से नाता तोड़ लिया जाय... ऐसा भिरूपन तो कोई कलमघसीट पूंजीवादी लेखक ही प्रदर्शित कर सकता है। समाजवादी कतई नहीं.. क्योंकि उसे पता होता है कि जनता सबसे बड़ा लौह कवच होती है; और क्रांति उसके हृदय में समाहित होता है। मध्यम वर्ग एक गौड़ वर्ग है; जो सशस्त्र रेडिकल क्रांति को रोकने का दमखम नहीं रखता... जो कि मुखा पेक्षी पिछलग्गू वर्ग है....वह सिर्फ प्रति क्रांतिकारी नहीं होता; बल्कि इस वर्ग से क्रांतिकारी भी आते हैं...साथ ही साथ क्रांति में इस वर्ग के हितों की अवहेलना नहीं की जाती और सर्वहाराकरण का भरपूर मौका दिया जाता है... शक्तिशाली मध्यम वर्ग रेडिकल बदलाव नहीं होने देगा; एक पूंजीवादी साम्राज्यवादी सोच है... माओवादी क्रांति उसके हितों को सुरक्षा प्रदान करेगी... माओवादी क्रांति मात्र उन लोगों के खिलाफ है; जो विश्व के 85 प्रतिशत सम्पदा पर कब्जा जमाये हुए हैं...सर्वहारा और अर्धसर्वहार वर्ग को क्रांतिकारी राज्य द्वारा सब्सिडियां प्रदान कर समाजवाद व साम्यवाद की मंजिल हासिल की जा सकती है... सशक्त मध्यम वर्ग को क्रांति विरोधी करार देना एक गैर माक्र्सवादी सोच है... माओवादियों की नजर में तो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग भी क्रांति विरोधी नहीं, बल्कि क्रांति का समर्थक है साम्राज्यवाद के लक्षणों व प्रभावों का चाहे आप जितना ताŸिवक मीमांसा करें...पूंजीवाद व साम्राज्यवाद कभी रचनाशील हो ही नहीं सकते।

छŸाीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा, सुदूर अंचलों से नयी दिल्ली तक सशस्त्र लौंग मार्च की अब क्रांति के लिए जरूरत ही नहीं रही...दरअसल माओवादी घेरने नहीं, जोड़ने जा रहे हैं... जिसे सुदूर अंचलों से आये छात्रों, नौजवानों और बुद्धिजीवियों ने पहले से जोड़ रखा है। आखिर शहर के गरीब गुरबे गांवों से ही तो आयें हैं शायद आपको पता नहीं शहरों में भी माओवादी क्रांतिकारी पैदा हो चुके हैं... अतः जंगल और समतल से घेरना नहीं.. जोड़ देना है... बेशक वैश्विक साम्राज्य सिर्फ मूक दर्शक नहीं बना रहेगा...उसने पैट्रियेट मिसाइलें, ड्रोन, रोबोट सैनिको का अविष्कार किया है..सातवां बेड़ा और नाटों सेनायें का काबुल में मौन बैठी है? फिर वहां से अमेरिकी साम्राज्यवाद के पांव उखड़ क्यों रहे हैं और वार्ता को क्यांे लालायित है? भारतीय सैनिक कभी क्या काबुल नहीं जायेंगे... रचनात्मक माक्र्सवादी पद्धति के क्या मायने? कहीं आत्मसमर्पण और दलाली तो नहीं? अथवा समाजवादी उद्देश्यों से धूर्ततापूर्ण पलायन तो नहीं।

यह भी सही है कि भारतीय वाममंथ का दायरा बहूुत सीमित दिखाई देता है...और सी0 पी0 एम0 को देखें तो उसमे उपर बैठे लोग सारे के सारे ब्राह्मण नजर आयेंगे... केरल में भी सबके सब नायर और ब्राह्मण ही हैं... और यह भी सम्भव नहीं कि एक ही समय में आप राजा भी बने और क्रांतिकारी भी सचमुच यह एक फरेब के सिवा और कुछ भी नहीं... जिस तरह से माओवादी नेता आजाद व किशन जी को फेक इन्काउन्टर के बाद तड़पा-तड़पा के मारा गया। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मृत जवान के पेट में बम डाल देने को क्या आप वाहियात कहेंगे? ऐसा कैसा मुमकिन है कि एक तरफ तो साम्राज्यवाद की विनाशक शक्ति पर आप मुग्ध हों .... और दूसरी तरफ माओवादी रणनीति की भत्र्सना करें सानी सोढ़ी के साथ जो कुछ हुआ उस कुकृत्य की कोई प्रतिक्रया होगी अथवा नहीं...इसके मद्देनजर क्या आप अपना समर्थन देना बंद कर देंगे नहीं न...शठ शठ्ायम समाचरेतकृ।

विभिन्न अस्मितायें मसलन जातियां, भाषायें राष्ट्रीयतायें समाजवाद के निर्माण में साधक है; बाधक नहीं है क्यां सामंतवाद व साम्राज्यवाद के नाम पर आपकी इच्छा इनके उच्छेदन व विलोपन की हैं.? विभिन्न राष्ट्रीयताओं के दमन के बिना क्या साम्राज्यवाद का सृजन सम्भव है? और क्या यह रचनाशीलता है? कतई नहीं...जहां तक जातियों का सवाल है; यह कोई आसामान से टपकी हुई व्यवस्था नहीं है.. यह बिल्कुल सुस्पष्ट पता है कि जातियां कैसे अस्तित्व में आई दरअसल जनों व जनपदों में ही इसके भ्रण पल रहे थे...दस्तकारी कास्ताकाीी व धातुकारी ने जातियों के विकास के लिए जमीन तैयार की। वर्ण व्यवस्था में जातियों का निर्माण नहीं किया... यह तो क्लासिफिकेशन आॅफ द सोसाइटी है.... जातियां थीं; जिसे वर्ण व्यवस्था ने क्लासिफाई किया। जातियां स्वयं में एक सामंती व सामाजिक संगठन है; जिसका सामंतवाद व पूंजीवाद अपने पक्ष में सचेतन ढंग से प्रयोग कर रहे है...सभी सियासी पार्टियों के जातीय आधार हैं; और वे तोड़ने की जगह; इन्हें जोड़ रही हैं...क्रांतिकारी माओवादियों व समाजवादियों को भी अपने संगठन को मजबूत करने में इनका बुद्धिमŸाापूर्ण प्रयोग करना चाहिए; बजाय इन्हें तोड़ने के चक्कर में पड़ने के सामाजिक द्वन्दवाद व पूंजीवाद के खात्में के साथ ही यह सम्भव है यह सिर्फ हमारा मनोगतवाद है कि सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के रहते, जातियां समाप्त हो जायेगीं...। समाजवादी व साम्यवादी समाज के सृजन व निर्माण के साथ जातियों का भी विलोपन हो जायेगा।

काश! हम यह समझ पाते कि साम्राज्यवाद पांच खम्भों पर खड़ा है; जो निम्नलिखित है; सामंतवाद, पूंजीवाद, साम्प्रदायिकवाद, जाति व धर्म तथा आतंकवाद साम्राज्यवाद के उन्मुलन के साथ ही इनका विलोपन होगा... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये दुधारी तलवार हैं...इनका समापन इस बात पर निर्भर है कि इनके संचालन में हम कितना कुशल हैं...सचमुच माक्र्स ने मानवीय दुनियां की हर बुराई को द्वन्दात्मक भौतिकवाद के वैज्ञानिक तरीके से समाप्त करने की सलाह दी है। बेशक सांस्कृतिक वर्ग संघर्ष के बिना यह सम्भव नहीं है...और सवाल यह भी कि आखिर कार दुनिया में हो रहे बदलावों, खासकर विज्ञान व तकनीकी तरक्की के बाद अगर माक्र्स की बहुत सारी स्थापनाओं में सुधार की जरूरत है; तो क्यां वे उनकी मूल स्थापनाओं मसलन द्वन्दात्मक भौतिकवाद, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व, वर्ग संघर्ष, और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत में बदलाव की जरूरत हैं?... कतई नहीं प्रश्न यह भी कि घालमेल करने की अपेक्षा क्या बेहतर नहीं होता है कि लेखक गण अपेक्षित सुधारों को सुस्पष्ट चिन्हित करते? दरअसल इससे उनकी धुंधली दृष्टि का सहज ही आभास हो जाता है। अपनी बात कहने में वे भयभीत क्यों लगते हैं?

जहां तक जेंडर का सवाल है अल्ट्रावाम इस समस्या के समाधान में एक हद तक सफल रहा है....महिला मुक्ति का मार्ग तब तक अपनी मंजिल तय नहीं कर पायेगा; जब तक महिलाओं व पुरूषों का पृथक एवं स्वतंत्र इकाई के तौर पर विकास न हो... हमें ’’ब्रेक मैरेज बी सोशलिस्ट’’ के नारे को चरितार्थ करना ही होगा। लिवइनरिलेशनशिप इसका पहला पायदान है। दरअसल सबसे बड़ी विडम्बना तो यही है कि हम सामंती व पूंजीवादी परिवार की अपेक्षा रखते हैं... कि सामंती व पूंजीवादी परिवार कायम रहें... आखिराकर हमंे यह कब अक्ल आयेगी कि समाजवाद में पति और पत्नी नामक रिश्ते का भी विलोपन हो जायेेगा अर्थात पति-पत्नी न होकर; साथी हो जायेंगे...हमें शादी नहीं साथी चाहिए के स्लगोन को चरितार्थ करना होगा कमोबेस अल्ट्रा माओवादी ऐसे ही रहते हैं।

बेशक जमीनहीन अस्थायी मजदूर या शहरी गरीब राजनीतिक विमर्श से बाहर हैं... पर चिंतन प्रक्रिया से बाहर नहीं हैं; साथ ही साथ पूंजीवाद के बर्बर पशु को खुला नहीं छोड़ा जा सकता। एक व्यापक संयुक्त मोर्चे की जरूरत है; जिससे किसी को इन्कार नहीं है; पर फिर वही बात कि एक ही संगठन सब कुछ नहीं कर सकता...पहलकदमी की आवश्यकता है...कमान थामने की जरूरत है माओवाद गांधीवाद ओर अम्बेडकरवाद को मिलके आगे बढ़ना होगा...वाद प्रतिवाद व संवाद के माध्यम से कुछ भी असम्भव नहीं...जहां तक नेपाल में माअेावाद का प्रश्न हेै? माओवादी पार्टी के भीतर विभाजन आवश्यक था तथा भारत व नेपाल में क्रांति एक ही साथ सफल होगी...हमारी राष्ट्रीयतायें भिन्न जरूर हैं पर हमारी आवश्यकतायें समान हैं-क्रांति में सम्मिलित भागीदारी की जरूरत है; जिसका दर्शन होगा.. गांधीयन माओवाद.. माओवाद समाधान नहीं; बल्कि समाधन तक पहुँने का रास्ता है।
:-कवि आत्मा बी0 एच0 यू0 वाराणसी मो0 नं0-07505586748

भारत का द्वन्दात्मक भौतिकवादी विश्लेषण 2017 की माओवादी क्रांति के परिपे्रक्ष्य में:



           जिस दिन कार्ल माक्र्स ने दार्शनिकों को चुनौती देते हुए यह घोषण की कि अब तक दार्शनिकों ने विश्व की सिर्फ व्याख्या की है; जब कि जरूरत इसे बदलने की है। उसी दिन से महसूस की जाने लगी कि दुनिया को एक ऐसे दर्शन की जरूरत है; जो बदलाव व इनकलाब लाये। दार्शनिक क्षेत्र में माक्र्सवाद एक बहुत बड़ी सफलता व दार्शनिक उपलब्धि के रूप में हमारे सामने खड़ा हुआ। इस प्रकार विकल्प हीनता की स्थिति का समापन व अंत हुआ पर हमें समझना चाहिए कि कोई भी दर्शन अपने आप मंे सम्पूर्ण नहीं होता। देश काल व परिस्थियों के मुताबिक इसमें बदलाव स्वभाविक है। दकियानुश व पुराणपंथी माक्र्सवादीयों व वामपक्षी आरोप द्वारा इस बदलाव को संसोधन वाद, प्रति क्रांतिवादी अथवा पुनउत्र्थनवादी कहकर खारीज करना ना समझी पूर्ण पहल कदमी होगी।

      1917 की रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति मात्र माक्र्स वादी दर्शन के आधार पर नहीं हुई; बल्कि रूस की भौतिक वादी सामाजिक आर्थिक संरचना के मुताबिक लेनिनवाद की जरूरत पड़ी। रूसी क्रांति का दार्शनिक आधार माक्र्सवाद लेनिनवाद था। ठीक इसी प्रकार 1949 की चीनी क्रांति से माक्र्सवाद लेनिनवाद के साथ माओवाद जुड़ गया। और माक्र्सवाद लेनिनवाद माओवाद बना; जो चीनी नव-जनवादी गणतांत्रिक क्रांति का दार्शनिक आधार बना। इसी तरह भारत में 2017 की माओवादी क्रांति का आधार सिर्फ माक्र्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद नहीं होगा बल्कि भारतीय संदर्भ के मुताबिक इसमें गांधीवाद भी जुड़ जायेगा। वह गांधीयन-माओवाद बन जायेगा; जो एक नया दर्शन होगा। यही नहीं क्रांति के घटक और मुख्य शक्तियाँ व हरावल दश्ता भी बदल जायेंगे। रूसी क्रांति सर्वहारा वर्ग ने की चीनी क्रांति वहा के किसानों ने, पर भारतीय क्रांति में ऐसा नही होगा; क्योंकि भारत की भौतिकवादी सामाजिक संरचना रूस और चीन से भिन्न है। इस देश की जनसंख्या में छात्र और नौजवानों का अनुपात आधा से अधिक अर्थात 55 प्रतिशत है जो पढ़े लिखे और समझदार है। ये छात्र और नौजवान जंगल और समतल से शहर और महानगर में आ गये हैं। जरूरत इस बात की है कि इन छात्र नौजवानों को माक्र्सवाद, लेनिनवाद व माओवाद की शिक्षा दी जाय। इनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है इसीलिए भारतीय क्रांति का केन्द्र बिन्दू रोजगार होगा; भूमि अथवा जमीन नहीं होगी नयीपीढ़ी छात्र और नौजवानों को तो छोड़ दीजिये गाँव का किसान भी खेती करना नहीं चाहता क्योंकि कि खेती में पैसा नहीं है आमदनी नहीं है लाभ नही है श्रम और मेहनत बहुत ज्यादा है इसीलिए खेती उपेक्षा और अपमान का धंधा हो गया है। छात्र और नौजवान भी खेती करना अपमान समझते है इसीलिए क्रांति का काम खेती को सम्मान का धंधा बनाना भी है। क्रांति के बाद हमें ऐसा कुछ करने की जरूरत होगी ता कि लोग कहे कि हम नौकरी छोड़ के खेती करेंगें। आज भी हमारी राष्ट्रीय आय में खेती का योगदान सबसे अधिक है। यह 69 प्रतिशत लोगों को रोजगार दे रहा है। फिर भी इसे सम्मान प्राप्त नहीं है। उद्योग धंधे मात्र 6 प्रतिशत लोगों को ही रोजगार प्रदान कर रहे है। सेवाक्षेत्र मात्र 25 प्रतिशत आबादी को ही रोजगार मुहैया करा रहा है; बावजूद उद्योग धंधों व सेवाक्षेत्र को सम्मान प्राप्त है। यह इस देश की बहु संख्यक आबादी का अपमान है। क्रांति इसलिए भी जरूरी हो गई है।

      सवाल यह भी कि जिस धंधे में 69 फीसदी आबादी लगी हुई है, राष्ट्रीय आय में उसका योगदान सिर्फ 14 प्रतिशत कैसे हुआ है? और जिस काम में यानी सेवाक्षेत्र जो सिर्फ 25 प्रतिशत लोग को रोजगार प्रदान कर रहा है राष्ट्रीय आय में उसका योगदान 58 प्रतिशत कैसे हो गया? तथा 6 प्रतिशत रोजगार देने वाले उद्योग-धंधों का योगदान 28 प्रतिशत कैसे हो गया? क्रांति इस लिए भी कि यह अर्थशास्त्र नही8 अनर्थ शास्त्र है। और मनमोहन तथा मोनटेक सिंह सरीखे लोग अनर्थशास्त्री है।

      हमारे देश के किसानांे ने इतना अधिक अन्न उपजाया कि अनाज रखने के लिए जगह नहीं है। अनाज सड़ रहा है। फिर भी इस देश की महिलायें बच्चे मजदूर किसान कुपोषित है। फिर 2017 की क्रांति क्यों नहीं है? प्रश्न यह भी कि आधी वस्तुयंे नियंत्रण में और आधी अनियंत्रित क्यों? किसानों के उत्पाद चावल, चीनी, चना, गेहूँ अगर नियंत्रित तो फिर उद्योग पतियों के उत्पाद बीज, खाद, कीटनाशक, दवा, कपड़ा, साबुन, पेट्रोल, डिजल, कार, मोटर का नियंत्रण क्यों नहीं? क्रांति इसलिए भी ताकि नव जनवाद समाजवाद व साम्यवाद की दिशा में पहल कदमी हो।

      हमारे देश के कम्यूनिस्ट भारत के समाजिक भौतिकवादी ताने बाने की अनदेखी व अवहेलना करते हुए भारत को जाति व्यवस्था को समझने में विफल रहे व वर्ग पर विशेष जोर देते है। उन्होंने इस बात को समझा ही नही कि भारत का समाज एक बहुजातियें व बहुराष्ट्रीय समाज है; और यही इस देश का ऐतिहासिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक भौतिकवाद है। इससे पैदा संघर्ष ही वर्ग संघर्ष है। वर्ग तो मात्र एक आर्थिक इकाई होता है पर जाति में आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक घटक विशेष तौर पर काम करते है। सांगठनिक व राजनैतिक दृष्टि से भी जाति का महŸव वर्ग की अपेक्षा अधिक दमदार सिद्ध हो रहा है। जिसका साम्राज्यवादी, सामंती व बर्जुवा राजनीतिक दल तो भरपूर फायदा उठा रहे है। पर क्रांतिकारी वाम पंक्षियों की इस परे ठोस व स्पष्ट दृष्टिकोण क्यांे नहीं आ पा रहा है? जिसका उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसका क्रांतिकारी वामपंथीयों द्वारा सांगठनिक लाभ उठाया जाना चाहिए। जिस क्षेत्र  में जिस जाति की बाहुल्यता हो उस क्षेत्र में उसी जाति के काजकर्ता का नेतृत्व होना चाहिए।

      यह नहीं भूलना चाहिए कि अलग-अलग चाबियों से अलग-अलग ताले खुलते हंै। सही मायने मंे कहा जाए तो जातियाँ क्रांति में हर नजरिये से सहायक है। बाधक होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता; हालांकि वर्ग की अवधारणा का भी क्रांति के नजरिये से काफी महत्व है। बावजूद भारत में पंूजीपति वर्ग को अगर छोड़ दिया जाये तो उतनी प्रभावी नहीं है दरअसल भारत में जाति और वर्ग समान ही है जाति वर्ग व्यवस्था का ही अंग और सोपान है तथा वर्ण और वर्ग एक ही चीज है; इनके बीच विशेष अंतर नहीं है।

      2017 भारत में एक बात तय है कि क्रांति कम्युनिस्टों के नेतृत्व में ही होगी बेशक कम्युनिस्टों के भी अपने कई राजनीतिक दल व संगठन है; मसलन सीपीआई सीपीएम, सी पी आई एम एल और सीपी आई0 माओवादी, सी पी ई माओवादी जिसे जनता का विश्वास प्राप्त है और क्रांति कारी समझा जाता है। जो सही भी है इन पर अतिवामपंथी होने का आरोप-प्रत्यारोप जारी है पर दुनिया में कम्युनिस्टों की एक पहचान व कसौठी होती है और वह यह कि उन्हे हमेशा हरवक्त, हर हालत में क्रांति नजर आती है और जिन्हें क्रांति नजर नहीं आती अथवा शून्य दिखाई पड़ती है वे निःसंदेह कम्युनिस्ट नहीं है और जिन्हें क्रांति दिखाई पड़ती है; वे असली कम्यूनिस्ट हैं। क्रांतिकारी व क्रांतिवादी कम्यूनिस्टों के बीच एकता जरूरी है आज की परिस्थियों में यह विशेष स्लागेन है ’’क्रांति कारियों की एकता क्रांति का रास्ता’’ चाहे वे क्रांतिकारी कम्यूनिस्ट किसी भी राजनीतिक दल अथवा संघटन में हों।

      जहाँ तक जन संगठनों का सवाल है तो जन संगठन से कहाँ कोई इनकार करता है पर यह आरोप बेबुनियाद है कि क्रांतिकारी कम्युनिस्टों व क्रांतिवादियों पर हथियार हावी है। अथवा सशस्त्र क्रांति एक हौवा है इस सवाल का जवाब हमें इस आलोक में देखना चाहिए कि भारतीय साम्राजवादी दलाल व राज्य के पास कितने हथियार है? कितने बड़े पैमाने पर भारतीय राज्य जिसका वर्ग बड़े पैमाने पर भारतीय राजा जिसका वर्ग चरित्र  फासिस्ट है; हथियारों का आयात कर रहा है। अतः हथियारों के हावी होने के तर्क में कोई दमखम नजर नहीं आता यह बुर्जुवापन व यथास्थिति कायम रखने वालों का भड़ास मात्र है; जबकि भारतीय संस्कृति सशस्त्र क्रांति की संस्कृति रही है इसीलिए सीपीआई माओवादी और क्रांतिकारी खेमे में भी ऐसे महानुभावों की कोई कमी नहीं जिन्हें क्रांतिनजर नहीं आती। जिनकी तुलना आप का उसकी ट्राटस्कीय काउस्की की मेंशेविकों अथवा कोमिंताग से कर सकते है। जो दकियानुस व पुराणपंथी माक्र्सवादी है। जो दीर्घ कालीन जन युद्ध के नाम पर क्रांति को माक्र्सवाद, लेनिन वाद व माओवाद के क्लासिकल ढांचे से बाहर नहीं निकालने देना चाहते है। क्रांति को भारत में आये सामाजिक भौतिक वादी बदलाव के अनुरूप रणनीति, कार्यनीति व कूटनीति का नाम सुनते ही बिदक जाते है। जो अभी तक नहीं समझ पा रहे कि 2017 क्रांति दूर की कौड़ी अथवा दिवा स्वान नहीं; बल्कि एक तल्ख सच्चाई है।

      दीर्घ कालीन जनयुद्ध तो ठीक है पर इसकी कोई गणना कोई सीमा कोई अनुमान है भी अथवा नहीं दस वर्ष, बीस वर्ष, तीस वर्ष कितने दिन? चीन में 1921 में 1898 कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई 1949 में क्रांति सम्पना हो गई रूस में कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई 1917 में वहाँ भी क्रांति सम्पन्न हो गई। भारत अपवाद क्यों है? कही इसलिए तो नहीं कि कम्युनिस्टों की क्रांति में कोई अभिरूचि है ही नहीं और वेे मात्र रवाना पुरी में लगे हुए है। यही भारत का इतिहासिक भौतिकवाद है।

      इस देश में कम्यूनिस्टों के बीच यह बहस का मुद्दा बना हुआ है कि देश में समाजवादी क्रांति होगीा नव जनवादी क्रांति होगी या फिर साम्यवादी क्रांति होगी? इस देश की विशेष परिस्थितियों के मद्देनजर यहाँ तीनों क्रांति या एक साथ होंगी। यहाँ तो जंगलों में आज भी जंगल युग यानी साम्यवाद समानता है। समतल में जो जमीन भूमि है वह भूमिहीन को दिया जायेगा यानी जब नवजनवादी क्रांति होगी तथा शहरों में घोर पूंजीवाद है यानि समाजवादी क्रांति होगी।

      हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मुख्य दुश्मन साम्राज्यवाद है सामा्रज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था है अर्थात समाजवादी क्रांति होनी चाहिए अर्थात रोजी-रोजगार व रोटी की लड़ाई यानी समाजवाद की लड़ाई; सम्राज्यवादी तथा उनके दलाल; सीपीआई माओवादी को अपना मुख्य दुश्मन मानते हैं; यानी भारत एक समाजवादी क्रांति के दौर से गुजरने वाला है।

चुनाव से वास्ता नहीं; क्रांति के अलावा कोई रास्ता नहीं ;

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चुनाव पूंजीवाद का प्राण है। चुनाव से ही यह जिन्दा है वरना पूंजीवादी व्यवस्था समाप्त हो जायेगी, मर जायेगी। चुनाव पूंजीपति को पार्लियामेेन्ट में पहुँचाता है। इस प्रकार पार्लियामेन्ट पूंजीपतियों का है। इसमें बैठकर पूंजीपति अपने लिए कानून बनाते है कि गरीबों के पास थोड़ी-मोड़ी जो सम्पŸिा रह गई है; उसे कैसे छीन ली जाय। वे ऐसा कानून बनाते है कि गरीबों का हक व हिस्सा कैसे छीन व लूट लिया जाय और यह छीनैती और लूट; कानूनी तौर पर जायज व वैध हो। पार्लियामेन्ट संविधान द्वारा लूट को वैधता प्रदान करता है। चुनाव द्वारा पूंजीपति व प्रतिनिधि गरीबों से वोट मांगते हैं व उसी का गर्दन काटते है। यह पूंजीवादी विधान है। इस प्रकार चुनाव, संसद तथा संविधान पूंजीपतियों की सेवा करते है।

पार्लियामेंट ने हमेशा गरीबों के खिलाफ कानून बनाया। वनों का राष्ट्रीयकरण कर पूंजीपतियों ने आदिवासियों से जंगल छीन लिया सेज व भूमि अधिग्रहण कानून बनाकर गांव के किसानों से समतल व उसके खेत-खलिहान छीन लिये। गंदे बस्तियों के सौदर्यीकरण के बहाने झुग्गी झोपड़वालों से शहर छीन लिया। मजदूरांे से हड़ताल करने के अधिकार छीन लिये, छंटनी को कानूनी जामा पहनाया। जरूरत है तो मजदूरों को रखो वरना लात मारकर बाहर कर दो हायर एण्ड हायर नीति लागू की। मनुष्य से मशीन लाभकारी होता है कि नीति का अनुसरण किया।

चुनाव द्वारा जंगल से आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है। गाँव से किसानों को और शहर से वहाँ के मूलनिवासी गरीब गुरबों को और अमीर विदेशीयों व प्रवासियों पूंजीवतियों निवेश व विनिवेश के नाम पर बुलाया जा रहा है। गरीबों के साथ पार्लियामेंट बेगानेपन का व्यवहार करता है तथा उसे और दरिद्र बनाता है। सबसिडिया अनुदान छीनता है, बैंकरों को सब्सिडीयां व बेल आउट देता है। किसानों को खेती के लिए जमीन नहीं दी जाती लेकिन उद्योगपतियों को उद्योग लगाने के लिए सौ साल के लिए फोकट में पट्टेपर जमींन देता है, चुनाव द्वारा चुना गया पूंजीपतियों का राज्य।

हमारी मूल आवश्यकताएं ही हमारी मूल समस्यायें होती है। चुनाव हमारी मूल समस्याओं के समाधान मंे पूरी तरह विफल रहा है। कहने का अर्थ यह है कि चुनावी राजनीति एक मात्र रास्ता नहीं है। मूल समस्याओं का समाधान जन आन्दोलनों द्वारा सम्भव है। आवश्यकता इस बात की है कि हम जन आन्दोलनों द्वारा देश की मूल समस्याओं के समाधान की तरफ अग्रसर हों।

धूमकेतू दुनिया में परिवर्तन, बदलाव व उथ-पुथल के सूचक होते है...और जब एक साथ तीन-तीन धूमकेेतुओं का भारतीय सियासी क्षितिज पर उदय हो, तो मान लेना चाहिए कि इन्कलाब का पूर्ण योग है; खण्ड योग का प्रश्न ही पैदा नहीं होता...अरविन्द के जरीवाल, अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने निश्चित ही इस ससंदीय प्रणाली को हिला कर रख दिया है.... और यह बिल्कुल ही करप्ट है....सुधार से काम चलने वाला नहीं है... आमूलचूल परिवर्तन व क्रांति के अलावा अब कोई अन्य विकल्प व रास्ता शेष नहीं बचा है.... संकट वैश्विक है और समाधान भी वैश्विक होगा... भारत पूरे विश्व को दिशा प्रदान करेगा....पूंजीवादी प्रजातंत्र का दाहसंस्कार आवश्यक है... मनमोहन, सोनिया, चिदम्बरम के अनर्थ तंत्र को उखाड़ फेकने की आवश्यकता है...मनमाहेन और मोंटेक सिंह आहूलवालिया अर्थशास्त्री नहीं...अनर्थशास्त्री हैं। विश्व बैंक आई0 एम0 एफ0 और अमेरिकी साम्राज्यवाद के पिछलग्गू व दलाल है। जैसे ही देश में क्रांति की हवा बहेगी; ये भाग कर अमेरिका चले जायेंगे। पूरी की पूरी मण्डली जिसमें राहुल गांधी भी हंै, कमीशन खोर हंै। भाजपा कांग्रेस की ही बी टीम है तथा इस देश के अन्य राजनीतिक दल जिनका जमावड़ा तीसरे मोर्चे के इर्दगिर्द हो रहा है; काॅरपोरेटो के ही शार्गीद है। इस प्रकार पूंजीपतियों ने पांच व्यूह बना रखे हैं चाहे जिसे वोट दो कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। पूंजीपति ही पार्लियामंेट में जायेगा और पूंजीपतियों के लिए ही कानून बनायेगा। तुम सोचते हो अपनी जाति केा वोट दिया लेकिन वह एक पूंजीपति है। देशवासी इन्हें पहिचानते है। बेशक ये नये डेन्टींग-पेन्टीग के साथ स्वयं को प्रस्तुत करने की कवायद कर रहे है। बोतल भी पुरानी है शराब भी पुरानी है। अभिजात वर्ग के लिए करप्शन समस्या नहीं, बल्कि समाधान है। पैसा फेको तमाशा देखों की कहावत चरितार्थ है।

पूंजीवाद मंे करप्शन को सिर्फ दिखावा के लिए समस्या माना जाता है। वरन् किसे पता नहीं कि बिना करप्शन के पेट्रोल विकास की गाड़ी एक सेन्टीमीटर भी आगे नहीं बढ़ सकती। धूमकेतू भी इसे भली-भांति वाकिफ हंै। बावजूद वे पूंजीवाद में ही करप्शन को लोकपाल विधेयक व आर0 टी0 आई0 द्वारा समाप्त करना चाहते है। यह जनता को बेवकूफ बनाना है। निजी सम्पŸिा के अधिकार को खत्म करना होगा तभी करप्शन की समाप्ति होगी वरना ना मुमकिन है।

और सवाल यह भी करप्शन का आकार व स्वरूप सिर्फ आर्थिक नहीं होता उसका स्वरूप सामाजिक भी होता है। राजनीतिक भी होता है। सांस्कृतिक भी होता है। करप्शन के कई रूप होते है; सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक बेरोजगारी, गरीबी, भूखमरी ये भी करप्सन ही है। जबकि केजरीवाल सिर्फ आर्थिक करप्शन की बात करते हंै आर्थिक करप्शन से भी खराब होता है। राजनीतिक करप्शन....राजनीतिक करप्शन से बड़ी ठगी भला और क्या हो सकती है। पूंजीवाद की प्रशंसा और समाजवाद को सौ-सौ गालियां देना भी करप्सन ही है।

भारत की जनता बार-बार राजनीतिक ठगी का शिकार होती रही है। राजनीतिज्ञ ने इसे बार-बार कई बार ठगा है। उसका प्रतिफल यह  िकवह जागरूक व सचेत हो चुकी है। अब उसे ठग और फुसला नहीं सकते। सभी राजनीतिक दलों ने अपना नामकरण जनता और उससे जुड़े चिह्नों व प्रतीकों के साथ कर रखा है। कांग्रेस का चुनाव चिह्न दीर्घ काल तक जोड़ा बैल था। सोशलिस्ट तथा प्रजा सोशलिस्ट पाटियों ने अपना चुनाव चिह्न झोपड़ी तथा बरगद का पेड़ रखा। किसी ने अपना नाम जन संघ रखा तो किसी ने जनता पार्टी और जनतादल रखा पर सभी राजनीतिक दलों ने जनता के साथ विश्वासघात किया और अमीरों जमींदारों व्यवसायियों, उद्योगपतियों को अमीर बनाया तथा दरिद्रो को और दरिद्र। देश की जनता दरिद्र से दरिद्रतर और निर्धन से निर्धनतम होती चली गई। किसी ने गरीबी हटाओं का नारा देकर गुमराह किया, तो किसी ने सम्पूर्ण क्रांति का सपना परोसा पर सबने पीठ पीछे अमीरों कीसेवा की। हर चीज की एक सीमा होती है। उदारवाद केनाम पर मनमोहन, सोनिया, चिदम्बरम मोंटेक तथा भाजपाइयों ने लक्ष्मण रेखा पार कर दी और हिन्दुस्तान को काॅरपोरेट घरानों का दास बना डाला। जनता एक मुक्तियुद्ध लड़ रही है। आम आदमी की आजादी की लड़ाई।...... जन युद्ध

वे राजनीतिक दल अथवा संगठन जो इस संवैधानिक व्यवस्था से बाहर रह कर कामकरते रहे है अथवा जो यह मानते है कि संविधान के अन्तर्गत कुछ भीठीक होना सम्भव नहीं वे जिस बात को कई दशकों से जनता से कह रहें हैं खुद बुर्जुवा पार्टियों के अन्तर्विरोधों ने जनता के बीच स्थापित कर दिया है कि संसद जनता की समस्याओें के प्रति उदासीन और संवेदनहीन है। ये राजनीतिक घूमकेतू उस उदाŸा भावना व विचार को घूमिल कर रहे है। अब जब कि केजरीवाल ’’आम आदीम पार्टी’’ बना चुके हैं, एक बार और ठगने के अलावा आम आदमी को क्या दे पायेंगे। सर्वप्रथम तो इनकी सफलता ही संदिग्ध है क्यों कि असली लड़ाई तो पूंजी की होगी। पार्लियामेन्ट पर बड़ी पंूजी का कब्जा होगा। साम्राज्यवादी पूंजी के सामने ये कहां टिकेंगे। केजरीवाल को छोटी सीबात समझ में नही आती कि धन तो धन होता है, जिसका स्वभाव ही शोषण व दमन के लिए है, चाहे काला धन हो अथवा गोरा धन हो। गोरा धन भी कम खतरनाक नहीं होता।

केजरीवाल ने अपने राजनीतिक पार्टी का नाम ’’आम आदमी पार्टी’’ का लेबेल जरूर लगा लिया है,पर इसमें एक भी आम आदमी नहीं है। इससे बड़ी राजनीतिक ठगी भला और क्या हो सकती है? इसमें तो सारे के सारे मध्यम वर्ग के लोग हंै। यह मध्यम वर्गीयों की पार्टी है। यह आम आदमी की पार्टी कतई नहीं है। आम आदमी के सामने रोजगार का संकट है। केजरीवाल ने रोजगार को मुद्दा ही नहीं बनाया उनकी पार्टी में एक भी आदमी बेरोजगार नहीं है। वह बेरोजगारी का दर्द क्या जाने? केजरीवाल के लिए गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण, निरक्षरता मुद्दे ही नहीं हैं। इसीलिए केजरीवाल कौन है? यह जानना मुश्किल नहीं है। यानी एक बार फिर उसी का खतरा मंडरा रहा है, जिसके खलनायक केजरीवाल, अन्ना हजारे, बाबा रामदेव व जनरल वी0 के0 सिंह हो सकते हंै क्योंकि इन्हें मसीहा के तौर पर पेश किया जाने लगा है। ऐसे मसीहाओं से होशियार रहने की जरूरत है।

यह पूंजीपतियों का ही मोर्चा है। पहला मोर्चा कांग्रेस का यू0पी0ए0 है। दूसरा मोर्चा भाजपा का एन0 डी0 ए0 है। तीसरा मोर्चा लोहियावादियों का है, जिनका साथ संसदीय वामपंथी देते आये हैं। सरमायादारों व पूंजीपतियों ने केजरीवाल के नेतृत्व में चैथा मोर्चा भी खड़ा कर दिया है ताकि पूंजीवादी सिस्टम को जिंदा रखा जाय। वरना् पूंजीपति रहेंग कैसे? क्योंकि एक सिस्टम के तहत पूंजीवादी व सामंती व्यवस्था फल-फूल रही है। उस सिस्टम के ये चारों धूमकेतु हैं। ये सब इसी व्यवस्था के पोषक हैं जबकि आवश्यकता इसके विनाश की है, जो 2017 की क्रांति का केन्द्र बिन्दु होगा।

क्रांति के केन्द्र में मेहनतकश मजदूर किसान, निम्न पूंजीमति वर्ग होगा, जबकि हिरावल दस्ता इस मुल्क के छात्र और नौजवान होगें, जिसका उद्देश्य होगा क्रांतिकारियों, शहीदों के स्वप्न को साकार करना व रोजी-रोटी मुहैया करना क्योंकि भारतीय काॅरपोरेट साम्राज्यवादी दलालों ने आम जनता से उसका रोजी-रोजगार छीन लिया है। किसानों से उनके खेत-खलिहान छीन रहे है। आदिवासियों से जंगल, जंगलता आम आदमी, बेरोजगारी व बेगारी का सामना है व विलुप्त होने के कागार पर है एवं अपने अस्तित्व की की जंग लड़ने को अभिशप्त व त्रस्त हैं। गांव उजड़ रहे है, जंगल उजड़ रहे हैं, शहर की सड़के धस रही है व बड़े-बड़े गड्ढों में तब्दील हो रही है। किसान आम हत्यायें कर रहे है। 2003 से प्रतिवर्ष सौ सैनिक आत्महत्यायें कर रहे हैं। व्यवसायी जहर खा रहे है। इस देश के छात्र और नौजवान सुसाइड नोट लिखकर फांसी पर झूल रहे है। सŸाा प्रतिष्ठान में बैठे लोग कह रहे हे देश द्रूतगति से विकास कर रहा है। केजरीवाले अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, वी0 के0 सिंह0 सरीखे ईमानदार लोग इस सिस्टम को बचाने में लगे हैं। गरीबो के वोट पर अमीरों का यह पंूजीवादी सिस्टम जिंदा है। उसी प्रकार समाज मंे समांती व्यवस्था की जड़ विवाह है। अगर वोट और विवाह बहिष्कार की इन्सान को अक्ल आ जाये तो पूंजीवादी व सामंती व्यवस्था का नाश अवश्य हो जायेगा।...पर हमारे देश में समझदारी का स्तर ऊँचा नहीं है।

राजस्थान के किसान अपना लहसुन 2 रूप्ये किलोग्राम बेच रहे है। बनिया इसे बाजार में 10 रूपयें किलोग्राम बेचता है और किसानों के घर से लहसुन पूरी तरह निकल जायेगा और बाजार में आ जायेगा तो काॅपरेट घराने इसे दो सौ रूपये किलो बेचेंगे। रिलायन्स बमुश्किल 100 रूपये का रसोईगैस 1300 रूपये प्रति सेलेण्डर बेच रहा है। इतनी बड़ी लूट को छूट देने वाला व बनियों पर आधारित बाजार व्यवस्था केा समर्थन देने वाला मनमोहन सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, तमाम लोहियावादी, संसदीय माक्र्सवादी व केजरीवाल, अन्ना, रामदेव तथा हमारे देश के भूतपूर्व जनरल वी0 के0 सिंह को ईमानदार कैसे कहा जा सकता है?

सच्चाई यह है कि समस्याओं का समाधान चुनाव नहीं है। हमारा पार्लियामेंट ही जनविरोधी बन चुका है। जनता गरीब व पार्टिया अमीर बनती चली गयी हैं। सन् 2009-11 के दौरान कांग्रेस ने देश विदेशों के उद्योगपतियों से 2008 करोड़ रूपये उगाहे। भाजपा में 994 करोड़ रूपये, बसपा ने 484 करोड़, माकपा ने 417 करोड़, सपा ने 279 करोड़ रूपये। इसीलिए हमारे राजनीतिज्ञ व राजनीतिक दल दुनिया भर के उद्योगपतियों व पूंजीपतियों के एजेण्ट बन चुके हंै। इन्हें हित देश से ज्यादा विदेश हित की परवाह है।

आवश्यकता इस बात की है कि क्रांतिकारियों के बताये रास्ते पर चलते हुए देशवासी व्यवस्था का अंतकर मेहनत करने वालों का राज्य कायम करें। न कि पूंजीपतियों के बनाये हुए अन्ना, केजरीवाल, रामदेव, किरणवेदी, वी0 के0 सिंह पांचवे घेरे में फंस जायेंगा।....और आगे पांच साल 2019 तक कराहते रहे बेहतर यह हो कि चुनाव से वास्ता तोड़, क्रांति का रास्ता पकड़े।

            :-कवि आत्मा वाराणसी दिनांक 11/12/2012